अफ़सरो को कांधे पर लिए फिरने का ये चलन इस शहर में कब से शुरू हुआ और किसने शुरू किया? ये शहर कामरेड होमी दाजी से लेकर सेठ साहब, कृपा पण्डित ओर निर्भय दादा, धारकर, शेखावत से सत्तन जैसे नेता और शरद जोशी, राहुल बारपुते, माणिक मामा गोपी दादा जैसे कलमकारों का है न? जिनके जनहित के मुद्दों पर तेवर ओर उनके समक्ष अफ़सरो का हाल इस शहर के स्मरण में आज भी है।
फिर इस शहर में ऐसा क्या हुआ कि जनप्रतिनिधियों को नपुंसक कहा जाने लगा और कलम को बिका हुआ? जिस कलम से इस शहर को हिंदी पत्रकारिता की मक्का का तमगा मिला है ओर नेताओ के कारण इंदौर को प्रदेश की राजनीतिक राजधानी की उपाधि मिली, उस शहर में फिर क्या जरूरत पड़ी की सत्तारूढ़ दल के बड़े नेता कैलाश विजयवर्गीय को ये कहना पड़ा कि अफ़सरो की मालिश करना अब इस शहर में बन्द होना चाहिए?
ये उन " मालिशियो " के मुंह पर जोरदार तमाचा है जो समझ रहे थे हमारी मालिश पर किसी की नजर नही। लेकिन जनता सब समझती है। तभी तो कैलाश विजयवर्गीय के बयान पर शहर की जनता ही नही, प्रदेश भी गदगद महसूस कर रहा है। किसी की प्रतिकार की हिम्मत भी नही हुई। इस बयान के परिणाम विजयवर्गीय के लिए भले ही कुछ भी रहे लेकिन जिस बेबाकी ओर दमदारी से उन्होंने कड़वे सच को उजागर किया...उनको सेल्यूट तो बनता है।
उन्होंने उस नंगे सच को बगेर लाग लपेट के मालवी अंदाज में बोला जो दिख तो सबको रहा था लेकिन लिख-बोल कोई नही रहा था। खुलासा फर्स्ट ने ये " हिमाकत " जरूर पहले दिन से की जिस पर कल भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने मुहर लगा दी। उनकी पीड़ा उजागर होने के एक दिन पहले ही खुलासा ने उन "चारणभाटो" को उजागर किया था जो शहर में नैरेटिव सेट करने में "गिरोह" के रूप में काम कर शहर का नुकसान कर रहे है। ये बात लिखने वाला भी खुलासा फर्स्ट ही पहला अख़बार रहा।
अफ़सरो की मालिश बन्द की गूंज इंदौर से होते हुए भोपाल से दिल्ली तक जा पहुंची है। प्रदेश भाजपा के एक बड़े वर्ग ने पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव की बात पर मुहर लगाई। अजा वर्ग के एक वयोवृद्ध नेता का तो यहां तक कहना था कि सरकार के राज में पूरे प्रदेश में नोकरशाही हावी है और चुन चुनकर लीडरशिप खत्म हो रही है या की जा रही है।
विजयवर्गीय ने जब बयान दिया तो सामने नेता अफसर ओर मीडिया तीनो मौजूद थे और विजयवर्गीय ने उनको ही सम्बोधित करते हुए बोला कि अगर अफ़सरो में इतना ही दम होता तो उज्जैन क्यो नही बना सफाई के नम्बर वन?
विजयवर्गीय के बयान के कई कई मायने कल से आज तक निकल् रहे है। इसमे एक सबसे अहम प्रदेश में ब्यूरोक्रेसी के हावी होने से जोड़ा गया है। शिवराज सरकार पर ये आरोप लम्बे समय से चस्पा भी है कि नोकरशाही हावी है और जनप्रतिनिधियों की कही कोई बखत नही रह गई। 2018 का चुनाव इसी आरोपो के मद्देनजर भाजपा हार भी गई थी। तब शिवराज सिंह चौहान की तुलना दिग्विजयसिंह से की गई थी कि 2003 का चुनाव राजा भी इसी कारण हारे की वो अफ़सरो के भरोसे सरकार चला रहे थे।
विजयवर्गीय का बयान भले ही शहर में चल रहे अफ़सरो के पपोलने के खेल से जुड़ा था लेकिन उसके मायने प्रदेश में चल रहे "कथित अफ़सर राज" से जोड़े गए है। बयान भी ऐसे वक्त आया है जब देश के पंत प्रधान इंदौर के बगल उज्जैन में दो दिन बाद आ रहे है और मुख्यमंत्री सहित पूरी सरकार का फोकस इंदौर-उज्जैन पर है। ऐसे में अफ़सरो की मालिश बन्द वाले बयान ने भाजपा की अंदरूनी राजनीति को गरमा दिया है। राजनीति के जानकार अब इस "लड़ाई" को निर्णायक दौर में प्रवेश से जोड़ रहे हैं।
52 जिले, 52 कलेक्टर
कोई आंख में आंख डालकर कर सकता है बात?
प्रदेश में अफसरशाही के राज का इससे बड़ा उदाहरण ओर क्या होगा कि 52 जिलों के 52 कलेक्टर के समक्ष भाजपा का एक भी जन प्रतिनिधि आंख में आंख डालकर बात कर सकता है क्या?
ये तल्ख सवाल हमारा नही, भाजपा के उन नेताओं का है जिन्होंने इस सवाल के जरिये भाजपा के शीर्ष नेतृत्व तक प्रदेश में ब्यूरोक्रेसी के हावी होने के सबूत बतौर सामने किया। हालात भी ठीक ऐसे ही जो दिखते भी है।
भाजपा के विधायक सांसद ही नही, मंत्री की भी इतनी हिम्मत नही की वो जिला कलेक्टर से दमदारी से बात कर सके। मसला भले ही जनहित का हो। अफ़सरो के सामने घिंघियाना ही पड़ेगा। विपक्ष की तो बात ही बेमानी है। हाल ही में एक ग्रामीण पृष्ठभूमि की विधायक पर 353 धारा यानी शासकीय कार्य मे बाधा करने की धाराओं में दर्ज हुआ प्रकरण ताजा सबूत है। वे विधायक भी जनता का मुद्दा लेकर ही जनता के साथ...कलेक्टर के पास गई थी। बोलचाल की भाषा मे बस इतना ही निकला मुंह से कि कलेक्टर हो कि ढोर....!!! मुकदमा दर्ज। वो भी गेर जमानती धाराओं में। यानी अब हर हॉल में विधायक महोदया को कलेक्टर के समक्ष हाथ पैर जोड़ना ओर गिड़गिड़ाने के अलावा कोई विकल्प नही। मामला 353 धारा का जो है और विधायक को आगे भी चुनाव लड़ना है। ये एक उदाहरण, पूरी हांडी के चावल को समझने में पर्याप्त है।
ब्यूरोक्रेसी...
सरकार ही नही, अब संगठन भी चला रही है
प्रदेश की ब्यूरोक्रेसी "सरकार" ही नही अब तो संगठन भी चला रही है। ये आरोप अब मुखर होते जा रहे है। कई जिलों में जिलाधीश ही "संगठन मंत्री" भी हो चले है। पूरी भाजपा उनके समक्ष ऐसे हाथ बांधे खड़ी रहती है जैसे " कुशाभाऊ" हो। दिलचस्प बात है कि ऐसा नतमस्तक भाव तो कुशाभाऊ ठाकरे के समक्ष भी नही रहा, जैसा " सत्ता वाली भाजपा" और उसके "कथित" जनप्रतिनिधियों का वर्तमान ब्यूरोक्रेसी के समक्ष है। कई बडे फैसले पर अंतिम मुहर ब्यूरोक्रेसी की ही रहती है। ब्यूरोक्रेसी अब तो ये भी तय करने लगी है कि अगला महापोर, सांसद का चुनाव कौन लड़ेगा ओर कौन नही?
इसकी बकायदा तैयारी भी होती है। जिलों में चुनाव लड़ने-लड़वाने का काम कभी संगठन के रहते थे। अब " सरकार" के इशारे पर अफ़सर तय करते है। गुणदोष के आधार पर नही। जिसकी कुंडली " सरकार" और " ब्यूरोक्रेसी" से 36 के 36 गुण वाली मिल गई..वो भविष्य का नेता। ऐसा कोई नेता नही जिससे कुंडली मिले तो उसका निदान नया नेता तैयार कर, कर दिया जाता है। एकदम न्यू ब्रांड।
ब्यूरोक्रेसी के कलेजे खुलते जा रहे है। "सरकार" के बाद अब वो " भाईसाहबो " को भी साधने की हिमाकत में जुट गई है। इसमे कितनी सफलता मिलती है ये आने वाला वक्त, चुनाव बताएगा।
ऐसा नही की भाजपा के विधायक सांसद मंत्री इससे बचे हुए है। अफसरशाही के हावी होने से वे भी दुःखी है। बोल सकते नही। क्योंकि "सरकार" की आंख कान ओर नाक अफसर बने हुए है। "ऊपर" से इशारे के बाद फिर ऐसा जनप्रतिनिधि हाशिये पर जाना ही जो अफ़सरो से थोड़ी बहुत हिमाकत कर जाए। ऐसे में जनप्रतिनिधियों की मजबूरी है कि वे अफसर की हा में हा मिलाकर काम करे। नेताओ के आंख मुंह बंद होने का एक कारण ये भी है। इसकी आड़ में "समझदार" जनप्रतिनिधियों बहाव के साथ बहने में ही समझदारी दिखाई और वे भी अब "बहती गंगा" में जमकर " हाथ धो " रहे है। शरीफ उल्टे बन रहे है कि क्या करे, कलेक्टर भाईसाहब का खास है यार।