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रक्षाबंधन पर जेल से ही लौटा दिया बहनों को : सतीश जोशी

आपकी कलम Published by: सतीश जोशी Updated Thu, 07 Aug 2025 01:34 AM
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आत्ममीमांसा (34)

सतीश जोशी, वरिष्ठ पत्रकार

जेल के बाहर तैनात संतरी 15 अगस्त को जो कुछ देखकर दुखी था, रक्षाबंधन के दिन उसको और अधिक दुख पहुंचा। उसको किसी ने बताया कि 1975 का वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रुप में मनाया जा रहा है और निष्ठुर महिला शासक इंदिरा गांधी ने मीसाबंदियों की बहनों को उस दिन भाईयों की कलाई पर राखी नहीं बांधने दी। रक्षाबंधन के दिन नियमित मेल-मुलाकात पर भी प्रतिबंध था। सुबह से मुलाकात कक्ष की खिड़कियां भी नहीं खुली थी। 

सलाखों के भीतर भाई, बाहर रोती बहनें

भीतर जेल में बंद मीसाबंदियों को उम्मीद थी कि बहनें आज आएंगी और भाइयों की कलाई पर राखी बांधेंगी। बाहर दरवाजे पर बहनें एकत्र थीं। सभी भाइयों से मिलने, मिठाई, घर का भोजन और राखी-नारियल लेकर आई थीं। मन्नतें कर रही थी, पर निष्ठुर शासिका के कठोर दरवाजों पर आपातकाल के ताले लगे थे और क्रूर निर्देशों का पालन करते जेल अफसरों की आँखों में संवेदना की तरलता उभर आई थी। पर वे बेबस थे, भीतर भाई आतुर थे तो बाहर बहनों का गुस्सा भी अनुनय-विनय की मुद्रा लिए था। 

बार-बार कहती, भैया बारह महीने का दिन है

याचना करती बहनें बार-बार कह उठती, जेल प्रहरी से कि भैया बारह महीने का दिन है, एक बार भाई को देख ही लेने दो, हम मिठाई, भोजन, राखी-नारियल देकर ही संतुष्ट हो जाएंगे, खिड़की से ही एक झलक देख लेने दो। जेल अधिकारियों के निर्देश पर प्रहरी ने घर का भोजन, मिठाई, राखी लेने को कहा और कहा भीतर इनके भाइयों को पहुंचा दो। तभी प्रहरीगण बहनों से भोजन के टिफिन, मिठाई और राखी-नारियल लेकर अंदर जाते हैं।

बहनें आईं थी, मिलने का आदेश नहीं

मीसाबंदियों ने बताया आपकी बहनें ये मिठाई, भोजन, राखी-नारियल का पैकेट दे गईं हैं, उनको आज आप लोगों से मिलने के आदेश नहीं हैं। आपस में एकदूसरे को राखी बांधते, रुंआसे भाई और एक दूसरे को ढाढस बंधाते मीसाबंदी, मिठाई खिलाकर ही खुश हो रहे थे। फिर कह उठे ये दिन भी नहीं रहेंगे। 

एक दिन आएगा, यह ताला भी टूटेगा

एक दिन तानाशाह महिला शासक की यह जेल टूटेगी ही। यह कह सब भोजन करने लगते हैं। एक टिफिन से जेल में बंद अटलजी की कविता सबका ध्यान खींचती है। जेल के भीतर मायूस लोगों में ऊर्जा का संचार करने के लिए यह सब अभियान का हिस्सा था। बाद में पता चला कि जो स्वयंसेवक भूमिगत थे वे यह अभियान चला रहे हैं। 

भूमिगत बाबूसिंह रघुवंशी ने बताया...

तब के युवा स्वयंसेवक भाजपा नेता बाबूसिंह रघुवंशी भी उन लोगों में शामिल थे। मैंने हाल ही में उनसे पूछा तो उन्होंने इस बात की पुष्टि की। इस कविता के बारे में भी बताया कि इसको गोपनीय रुप से छपवाकर जेल और जेल के बाहर भूमिगत स्वयंसेवक बांटते थे। कविता भारी बारिश और बेहाली पर लिखी थी। संतरी ने उसकी प्रति भी मुझे दी थी।

अटलबिहारी बाजपेयी की कविता---

जेपी डारे जेल में,

ता को यह परिणाम,

पटना में परलै भई,

डूबे धरती धाम,

मच्यो कोहराम चतुर्दिक,

शासन के पापन को,

परजा ढोबे धिक्-धिक्,

कह कैदी कविराय,

प्रकृति का कोप प्रबल है,

जयप्रकाश के लिए,

धधकता गंगजल है।

प्रकृति भी गुस्सा थी

बिहार, उत्तरप्रदेश और देश के अन्य स्थानों पर मूसलाधार बारिश के बाद अटलजी ने यह कविता लिखी थी। इसके भाव यह थे कि निष्ठुर शासक के खिलाफ प्रकृति भी अपना रौद्र रुप दिखा रही है। जयप्रकाश नारायण के लिए गंगाजल भी धधक रहा है। मीसाबंदी इस कविता को  पढ़ते हुए, बहनों का भेजा भोजन उदासभाव से ग्रहण कर रहे थे।

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