रिपोर्ट: रविंद्र आर्य
भारतीय लोकसंगीत और अभिनय की दुनिया में इला अरुण एक ऐसा नाम हैं, जिनकी कला और व्यक्तित्व ने दशकों से दर्शकों को मोहित किया है। उनकी आत्मकथा "परदे के पीछे" उनके जीवन की संघर्षपूर्ण यात्रा, कला के प्रति उनकी निष्ठा और सिनेमा एवं संगीत में उनके अमूल्य योगदान को बेहद प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है।
राजस्थान की गलियों में बचपन बिताने वाली इला अरुण का सफर बेहद रोचक रहा है। एक साधारण शुरुआत से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करने तक, उनका जीवन प्रेरणादायक है। लोकगायन में उनकी रुचि बचपन से ही रही, और संगीत के प्रति उनका जुनून इतना गहरा था कि वे साइकिल के हैंडल पर गाते हुए रियाज़ किया करती थीं।
उनका रंगमंच से जुड़ाव भी उतना ही प्रभावशाली रहा। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) में उन्होंने प्रसिद्ध रंगकर्मी इब्राहिम अल्काज़ी के निर्देशन में अभिनय का प्रशिक्षण लिया और अपने अभिनय कौशल को निखारा।
इला अरुण ने गायन के साथ-साथ अभिनय में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई। उन्होंने श्याम बेनेगल जैसे दिग्गज फिल्म निर्देशकों के साथ काम किया और सिनेमा में अपनी विशिष्ट छवि स्थापित की। जोधा अकबर जैसी फिल्मों में उनके अभिनय को खूब सराहा गया। उनके गीत "घूंघट कटा के देखो" और "रिंगा रिंगा" आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में बसे हुए हैं।
इस संशोधित संस्करण में वर्तनी, विराम चिह्न एवं वाक्य संरचना की त्रुटियों को सुधारा गया है ताकि न्यूज़पेपर आर्टिकल के मानकों पर खरा उतरे।
इला अरुण को भारत में तो ख्याति मिली ही, साथ ही उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सम्मानित किया गया। नॉर्वे सरकार ने उन्हें अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान से नवाज़ा, जो उनकी कला के प्रति समर्पण और योगदान का प्रमाण है।
इला अरुण की आत्मकथा "परदे के पीछे" के प्रकाशन में दा ओम पुरी फाउंडेशन और नंदिता पुरी की अहम भूमिका रही है। नंदिता पुरी के सान्निध्य में यह किताब एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बनकर उभरी है, जो न केवल इला अरुण के जीवन की अनसुनी कहानियों को सामने लाती है, बल्कि भारतीय लोककला, रंगमंच और सिनेमा की जड़ों को भी गहराई से समझने का अवसर प्रदान करती है।
पेंगुइन इंडिया द्वारा प्रकाशित और अंजूला बेदी द्वारा लिखित यह आत्मकथा इला अरुण के जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करती है। इसमें उनके संघर्ष, उपलब्धियों और कला जगत के दिलचस्प अनुभवों को प्रभावी शैली में प्रस्तुत किया गया है। यह किताब न केवल संगीत और सिनेमा प्रेमियों के लिए, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणादायक है, जो अपनी कला के प्रति समर्पित है।
"परदे के पीछे" उन सभी के लिए एक जरूरी किताब है, जो भारतीय लोकसंगीत, सिनेमा और रंगमंच की दुनिया को गहराई से समझना चाहते हैं। दा ओम पुरी फाउंडेशन और नंदिता पुरी का यह प्रयास कला जगत में एक महत्वपूर्ण योगदान के रूप में दर्ज होगा।
लेखक रविंद्र आर्य, लोक कला, सिनेमा और सामाजिक विषयों पर लेखन करने वाले वरिष्ठ लेखक हैं। उनके समाचार पत्र मे लेख मालिनी अवस्थी के "चंदन किवाड़", तस्लीमा नसरीन "शिउली की गंध", अखिलेशन्द्र मिश्र "आत्मोत्थानम् " कविता- संग्रह और जयप्रकाश त्रिवेदी "सूत्रधार कौन" की भारतीय लोकसंस्कृति एवं सिनेमा पर केंद्रित हैं।
लेखक: रविंद्र आर्य M. 7838195666