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प्रखर-वाणी : आपातकाल में लोकतंत्र की आत्मा को कैद करती तानाशाही देखी...इंदिरा की संविधान विरोधी अफसरशाही देखी...

आपकी कलम Published by: प्रो. (डॉ.) श्याम सुन्दर पलोड Updated Thu, 26 Jun 2025 02:43 AM
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लो पूरे हो गए आपातकाल के पचास साल...तब सरकार के खिलाफ मुखरित होना बना था जी का जंजाल...इन्दिरा गांधी के खौफ की आंधी तब खूब चली...संविधान की हत्या करने वाली तानाशाह तब खली...पर जब जुनून मस्तक पर सवार होकर विद्रोह करता है...तो उसके खौफ और आक्रामक रवैये से सारा जग डरता है...

अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की बलि चढ़ती प्रक्रिया से इंदिरा रुष्ट हो गई...न्यायालय का विरोधी फैसला आया तो क्रोध की आंधी पल भर में दुष्ट हो गई...यूँ तो आपातकाल 25 जून 1975 को लगाया गया...लेकिन इसकी पटकथा का जिम्मा राजनीतिक असन्तोष द्वारा उठाया गया...1973 से 1975 के बीच इंदिरा गांधी का भारी विरोध हुआ...इसी दरमियान गुजरात का नव निर्माण आंदोलन और जेपी का सम्पूर्ण क्रांति नारा प्रतिशोध हुआ...छात्रों और मध्यवर्ग के उस आंदोलन से मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को गद्दी छोड़ना पड़ी...राज्य विधानसभा भंग कर अपनी ही सत्ता को राष्ट्रपति शासन की राह मोड़ना पड़ी...मार्च - अप्रेल 1974 में बिहार में छात्र आंदोलन को जयप्रकाश नारायण का समर्थन मिला...सम्पूर्ण क्रांति के नारे ने इंदिरा सरकार का हिला दिया किला...इन विरोधों ने राजनीतिक अस्थिरता की तरफ इंदिरा सरकार को मोड़ा...निर्ममता व क्रूरता से सरकारी तंत्र ने इन आंदोलनों को मरोड़ा...इस बीच राजनारायण की अर्जी पर जज ने 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी को दोषी माना...रायबरेली से इंदिरा का चुनाव अवैध और अगले छह वर्षों तक चुनाव लड़ने की पाबंदी को देश ने जाना...इंदिराजी द्वारा सुप्रीम कोर्ट में की गई चुनौती भी निष्प्रभावी रही...

24 जून 1975 को सुप्रीम फैसले के बाद आपातकाल की नीति सम्भावी रही...जबरदस्त राजनीतिक विरोध के चलते इंदिराजी अलग थलग पड़ गई...पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे व संजय गांधी के मसौदे पर इंदिरा आपातकाल का तमाचा जड़ गई...देश में अस्थिरता व अराजकता को आधार बनाकर आंतरिक आपातकाल लगाया...संविधान का गला घोंटकर हमारे मौलिक अधिकारों को दूर भगाया...मीडिया सेंसरशिप ऐसी की प्रेस वही छाप सकती है जो सरकार चाहे...हजारों लोगों की बेवजह गिरफ्तारी की तरफ बढ़ गई थी सरकारी निगाहें...जेलों में ठूंस ठूंसकर नेता , सामाजिक कार्यकर्ता व पत्रकार भरे जा रहे थे...पुलिस के क्रूर अफसर उनपर निर्मम बेदर्दी करे जा रहे थे...

किसी ने यदि बाहर खड़े होकर भी सरकार के खिलाफ कुछ बोला...उसकी खैर नहीं थी उसको पकड़ा और उसकी तशरीफ़ पर लठ का मुंह खोला...संजय गांधी की नेतागिरी में जबरन नसबन्दी...अत्याचार , दुराचार भोग रहे निहत्थे खा रहे थे गालियां गन्दी गन्दी...आपातकाल में लोकतंत्र की आत्मा को कैद करती तानाशाही देखी...इंदिरा की संविधान विरोधी अफसरशाही देखी...लेकिन प्रजा के रहते प्रजातन्त्र को हल्के में लेना भारी पड़ गया...1977 के आम चुनाव में जनता का मत इंदिरा गांधी की कांग्रेस को चोट करारी कर गया...

पहली बार देश में गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार आई...संविधान और अभिव्यक्ति की आजादी पर जन जन ने मुहर लगाई...आपातकाल की विष विभीषिका को लोग आज भी भूले नहीं है...आपातकाल का नाम सुनते ही गुर्राते लोगों में ऐसे एक भी नहीं है जिनके गाल फुले नहीं है...सदी की ही नहीं सृष्टि की सबसे बड़ी भूल थी आपातकाल...उसी की लगी हाय का दुष्परिणाम देख लो आज कांग्रेस हो गई कंगाल...

● प्रो. (डॉ.) श्याम सुन्दर पलोड : लेखक, कवि एवं वक्ता

4, श्रीराम मंदिर परिसर, सुदामा नगर, डी-सेक्टर, इंदौर (म.प्र.) स्वरदूत - 9893307800

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