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दस सालों में 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से आए बाहर, सबसे अमीर राज्य महाराष्ट्र तो सबसे गरीब राज्य बिहार

अन्य ख़बरे Published by: Pushplata Updated Wed, 09 Oct 2024 10:52 AM
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हाल में प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र में अपने संबोधन में कहा कि हमारी सरकार के दस साल के कार्यकाल में करीब 25 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले हैं। उनके जीवन में सुधार आया है, मगर गरीबी और इसके कारणों को विस्तार से समझने की जरूरत है। उसके बाद ही गरीबी हटाने के उपायों को कारगर बनाया जा सकता है। भारत में गरीबी एक जटिल और बहुआयामी मुद्दा है, जो ऐतिहासिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारकों के संयोजन से प्रभावित है। वर्ष 2023-24 में भारतीय राज्यों की जीडीपी के अनुसार,सबसे धनी राज्य और सबसे गरीब राज्य माना गया है।

नीति आयोग की नवीनतम रपट के अनुसार, पिछले नौ वर्षों में लगभग 24.82 करोड़ भारतीय बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले हैं। बिहार, मध्यप्रदेश औरमें बहुआयामी गरीबी में सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई, जो कि लगभग 13.88 करोड़ लोगों को गरीबी से निकालने का दावा करती है। रपट पिछले नौ वर्षों में बहुआयामी गरीबी में 17.89 फीसद की गिरावट की ओर इशारा करती है, क्योंकि इस स्थिति में रहने वाले लोगों की संख्या 2013-14 में 29.17 फीसद थी और 2022-23 में 11.28 फीसद (लगभग 15.5 करोड़ भारतीय) थी। वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआइ) गरीबी के स्तर और तीव्रता को मापने के लिए तीन व्यापक आयामों- स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर का उपयोग करती है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने सौ से अधिक विकासशील देशों में गरीबी के स्तर को निर्धारित करने के लिए इस पद्धति का उपयोग किया है।

भारत ने अपनेएमपीआइ में स्वास्थ्य और जीवन स्तर के आयामों के तहत दो नए मानक- मातृ स्वास्थ्य और बैंक खाते जोड़े हैं। भारत में हर घर को इन बारह मानदंडों के आधार पर अंक दिया जाता है। अगर किसी घर का अभाव अंक 33 फीसद से अधिक है, तो उसे बहुआयामी गरीब के रूप में पहचाना जाता है। नीति आयोग की रपट बताती है कि भारत अपने सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के लक्ष्य 1.2 को प्राप्त करने की संभावना रखता है, जिसका लक्ष्य 2030 तक बहुआयामी गरीबी को आधा करना है। रपट इस बात पर जोर देती है कि पोषण अभियान, उज्ज्वला योजना, स्वच्छ भारत अभियान और प्रधानमंत्री जन-धन योजना जैसे सरकारी कार्यक्रमों ने बहुआयामी गरीबी को कम करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

5 फीसदी की आई गिरावट

वहीं फरवरी, 2024 में जारी भारतीय स्टेट बैंक के शोध के अनुसार, देश में गरीबी दर 2022-23 में 4.5-5 फीसद तक गिर गई। घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर एसबीआइ शोध ने इस गिरावट का श्रेय पिरामिड के निचले हिस्से के लिए शुरू किए गए सरकारी कार्यक्रमों को दिया है। घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि ग्रामीण गरीबी 2011-12 में 25.7 फीसद से घटकर 7.2 फीसद हो गई और शहरी गरीबी एक दशक पहले से 4.6 फीसद कम हो गई है। एसबीआइ शोधकर्ताओं के अनुसार, नई गरीबी रेखा क्रमश: ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के लिए 1,622 रुपए और 1,929 रुपए थी। इन आंकड़ों की गणना सुरेश तेंदुलकर समिति की सिफारिशों के आधार पर की गई थी, जिन्होंने 2011-12 में गरीबी रेखा निर्धारित की थी।

वर्ष 2023 की बहुआयामी गरीबी सूचकांक रपट के अनुसार, दुनिया के कुल गरीबों में एक तिहाई से अधिक दक्षिण एशिया में रहते हैं, जो लगभग 38.9 करोड़ हैं। भारत अत्यधिक गरीबी में लगभग 70 फीसद की वृद्धि के लिए जिम्मेदार है। विश्व बैंकगरीबी रेखा के आधार पर गरीबी को परिभाषित करता है, जिसके अनुसार प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 2.15 डालर की दर से अत्यधिक गरीबी तय की जाती है, जबकि 3.65 डालर निम्न-मध्यम आय श्रेणी में आता है तथा 6.85 डालर उच्च-मध्यम आय श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है। 3.65 डालर निर्धारित गरीबी रेखा पर विचार करते हुए भारत का योगदान वैश्विक गरीबी दर में मामूली वृद्धि के साथ 40 फीसद के बराबर है, जो 23.6 फीसद से बढ़कर 24.1 फीसद हो गई है।

गरीबी से निपटारे को लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य की आवश्यक्ता

भारत में ब्रिटिश आर्थिक नीति के कड़े आलोचक दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत भारत के वित्तीय शोषण को ‘ड्रेन थ्योरी’ के माध्यम से समझाया था कि, भारत में उत्पन्न आर्थिक अधिशेष ब्रिटेन भेज दिया गया, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था दरिद्र हो गई। कई प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों और नेताओं ने देश में उच्च गरीबी दर के मूल कारणों के बारे में विस्तार से जानकारी दी है। अमर्त्य सेन ने भारत में गरीबी से निपटने तथा आर्थिक विकास को बनाए रखने के लिए सामाजिक असमानताओं को दूर करने तथा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में निवेश करने के महत्त्व पर जोर दिया है।

विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था प्राथमिक वस्तुओं के निर्यात पर बहुत अधिक निर्भर है, जो औपनिवेशिक आर्थिक संरचना की विरासत है। यह अर्थव्यवस्था को बाहरी बाजार के उतार-चढ़ाव के प्रति संवेदनशील बनाती है। वहीं सामाजिक असमानताएं, जो अक्सर जाति व्यवस्था या जातीय विभाजन जैसे ऐतिहासिक कारकों के चलते और बढ़ जाती हैं, भारत में लगातार गरीबी का कारण बनती हैं। भेदभाव के कारण हाशिये पर पड़े समूहों के लिए शिक्षा, रोजगार और अन्य अवसरों तक पहुंच सीमित होती है।

जनसंख्या वृद्धि से बढ़ रहा दबाव

वहीं जनसंख्या में तेज वृद्धि के कारण उपलब्ध संसाधनों पर दबाव पड़ता है और सतत विकास लक्ष्य प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इससे बेरोजगारी बढ़ती है और आवश्यक सेवाओं तक सीमित पहुंच होती है, जो भारत में उच्च गरीबी दर में योगदान देती है। कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि भारत में गरीबी बढ़ाने वाले कारणों में व्यापार असंतुलन और ऋण बोझ सहित वैश्विक आर्थिक गतिशीलता भी शामिल है। शक्तिशाली देशों द्वारा लागू की गई व्यापार की प्रतिकूल शर्तें और आर्थिक नीतियां स्थानीय विकास प्रयासों में बाधा डालती हैं। इससे देश की आर्थिक व्यवस्था प्रभावित होती है, जो गरीबी बढ़ाने में सहायक साबित होती है। भारत में गरीबी के कारणों में उच्च जनसंख्या घनत्व, कम साक्षरता दर, अपर्याप्त बुनियादी ढांचा, अप्रभावी शासन और सीमित औद्योगिक विकास भी शामिल हैं।

बड़े स्तर पर काम करने की जरूरत

सरकार की ओर से गरीबी में सुधार का आकलन बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन शैली जैसे मानदंडों के आधार पर किया गया है। इसमें बाल पोषण, मृत्यु दर, मातृ स्वास्थ्य, स्कूली शिक्षा, स्कूल में उपस्थिति, खाना पकाने का ईंधन, स्वच्छता, पीने का पानी, बिजली, घर, संपत्ति और बैंक खाता जैसे तथ्य भी शामिल किए गए हैं। निश्चित तौर पर हर सरकार में गरीबी हटाने के लिए काम किया जाता रहा है। पर इन प्रयासों को पूरी तरह सफल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अभी बहुत बड़े स्तर पर काम करने की जरूरत है। इसके लिए सरकार के साथ सामाजिक संस्थाएं, एनजीओ और यहां तक कि आम आदमी को भी अपने स्तर पर गरीबी हटाने की दिशा में काम करने की जरूरत है। ऐसा करने के बाद ही हम देश से गरीबी को पूरी तरह खत्म और विकसित भारत के लक्ष्य को हासिल कर सकेंगे।

विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था प्राथमिक वस्तुओं के निर्यात पर बहुत अधिक निर्भर है, जो औपनिवेशिक आर्थिक संरचना की विरासत है। यह अर्थव्यवस्था को बाहरी बाजार के उतार-चढ़ाव के प्रति संवेदनशील बनाती है। वहीं सामाजिक असमानताएं, जो अक्सर जाति व्यवस्था या जातीय विभाजन जैसे ऐतिहासिक कारकों के चलते और बढ़ जाती हैं, भारत में लगातार गरीबी का कारण बनती हैं। भेदभाव के कारण हाशिये पर पड़े समूहों के लिए शिक्षा, रोजगार और अन्य अवसरों तक पहुंच सीमित होती है।

Note- यह आर्टिकल चर्चित न्यूज़ वेबसाइट से लिया गया है

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