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नाथद्वारा : व्रज - भाद्रपद कृष्ण अष्टमी : मंगला दर्शन, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

नाथद्वारा Published by: Paliwalwani Updated Fri, 19 Aug 2022 09:49 AM
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 (मंगला समय सुबह 4.45 बजे)

नाथद्वारा :  आज का उत्सव महा-महोत्सव कहलाता है. पुष्टिमार्गीय वैष्णवों के लिए यह महोत्सव सबसे अधिक महत्व का होता है.  महा-महोत्सव होने के कारण श्रीजी मंदिर के सभी मुख्य द्वारों की देहरी (देहलीज) को हल्दी से लीपी जाती हैं एवं आशापाल की सूत की डोरी की वंदनमाल बाँधी जाती हैं. 

आज दोहरी देहरी मांडी जाती है. द्वार के कोनों पर हल्दी एवं कुंकुम से कमल, स्वास्तिक, पलना, लताएँ आदि चित्रकारी की जाती है.  गेंद, चौगान, दिवाला आदि सब सोने आते हैं. अत्यंत उत्साह एवं उमंग से आज का उत्सव मनाया जाता है. 

दिन में सभी समय झारीजी में यमुनाजल भरा जाता है. चारों समय (मंगला, राजभोग, संध्या व शयन) की आरती थाली में की जाती है. श्रीजी में प्रातः 4 बजे शंखनाद होते हैं और 4.45 मंगला दर्शन खुलते हैं. खुले दर्शनों में ही मंगला आरती के उपरांत टेरा लेकर प्रभु का उपरना बड़ा कर (हटा) दिया जाता है और श्री तिलकायत महाराज अथवा चि. श्री विशाल बावा कुंकुम से तिलक कर प्रभु को पंचामृत स्नान कराते हैं.

पंचामृत स्नान में प्रभु को क्रमशः दूध, दही, घृत (घी), शहद और बूरा (पकी हुई शक्कर का चूरा) से स्नान कराया जाता है. पंचामृत स्नान के समय प्रभु विभिन्न रंगों में दिखायी पड़ते हैं और तब प्रभु की छटा अलौकिक दिखायी पड़ती है.

श्रीजी व श्री नवनीतप्रियाजी में पंचामृत के उपरांत तिलकायत महाराज व चि विशाल बावाश्री श्री महाप्रभुजी की बैठक में विराजित हो वैष्णवों को चरणस्पर्श देते हैं.

पंचामृत के छींटे जो प्रभु स्वरूप से स्पर्श होकर उड़ते हैं और वल्लभ स्वरूपों के चरणों में लगते है, वैष्णव उनके स्पर्श से धन्य धन्य हो जाते हैं. आज प्रभु को जन्मदिवस के महात्म्य स्वरूप यशोदोत्संगलालित स्वरूप के आधार रूप परब्रह्म श्रीकृष्ण के रूप में पंचामृत स्नान कराया जाता है. पंचामृत को दर्शन के पश्चात् श्रीजी के पातलघर से सभी वैष्णवों को वितरित किया जाता है जिसे प्रभु प्रसाद के रूप में सभी ग्रहण करते हैं.

पंचामृत स्नान के पश्चात् प्रभु को चन्दन, आवंला, उबटना एवं फुलेल (सुगन्धित तेल) आदि से दोहरा अभ्यंग (स्नान) कराया जाता है. सर्व कीर्तन समाज के संग यह कीर्तन गाया जाता है. 

नैन भरि देख्यौ नंदकुमार। 

ता दिनतें सब भूलि गयौ हौं बिसर्यौ पन परवार॥ 

बिन देखे हौं बिकल भयौं हौं अंग-अंग सब हारि। 

ताते सुधि है साँवरि मूरतिकी लोचन भरि भरि बारि॥ 

रूप-रास पैमित नहीं मानों कैसें मिलौ लो कन्हाइ। 

’कुंभनदास’ प्रभु गोरबधन-धर मिलियै बहुरि री माइ॥

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