श्रीराम नही, भारत की आत्मा का प्रकटीकरण है आज। जन जन के राम। हम सबके राम। मर्यादा पुरुषोत्तम राम। जनक दुलारे श्रीराम। अयोध्या नंदन श्री राम। 130 करोड़ लोगों को एक सूत्र में पिरोने वाले श्रीराम। आज सबके आराध्य देव का प्रकाट्य दिवस आप सबके लिए शुभ हो। मंगल हो। बोलो सियावर रामचंद्र जी की जय जय। कल्पना कीजिये उस क्षण की जब इस वसुंधरा पर प्रभु का प्राकट्य हुआ। कैसा पल होगा वो? जनमानस कैसा हर्षित उल्लसित होगा? प्रकृति का स्वरूप क्या हुआ होगा? देवगणों का हाल क्या रहा होगा? समूची कायनात कैसे झूमी होगी? ख़ुलासा फर्स्ट श्री रामचरित मानस के जरिये लेकर आया है आपके लिए वो आल्हादित करने का दृश्य जो रघुकुलनंदन के धरा पर अवतरित होते वक्त था।
जोग लगन ग्रह बार तिथि,
सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत,
राम जनम सुखमूल॥
योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गए। (क्योंकि) श्री राम का जन्म सुख का मूल है॥
नौमी तिथि मधु मास पुनीता।
सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता।
मध्यदिवस अति सीत न घामा।
पावन काल लोक बिश्रामा॥
पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित् मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था॥1॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ।
हरषित सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा।
स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥
शीतल, मंद और सुगंधित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में (बड़ा) चाव था। वन फूले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रही थीं॥
सो अवसर बिरंचि जब जाना।
चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल संकुल सुर जूथा।
गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥
जब ब्रह्माजी ने वह (भगवान के प्रकट होने का) अवसर जाना तब (उनके समेत) सारे देवता विमान सजा-सजाकर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गंधर्वों के दल गुणों का गान करने लगे॥
बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी।
गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा।
बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा।।
और सुंदर अंजलियों में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे। आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे। नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा (उपहार) भेंट करने लगे॥
सुर समूह बिनती करि,
पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे,
अखिल लोक बिश्राम॥
देवताओं के समूह विनती करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शांति देने वाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए॥*
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला,
कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी,
अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा,
निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला,
सोभासिंधु खरारी॥
दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी,
केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना,
बेद पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर,
जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी,
भयउ प्रगट श्रीकंता॥
दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी- हे अनंत! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं॥