इंदौर : डीजीपी सुधीर कुमार सक्सेना कमान संभालने के बाद पुलिस के काम-काज की समीक्षा के लिए पहली बार पुलिस इंदौर आए। लंबी बैठक की। इस बीच, अपने मन में कई सवाल लिए स्थानीय पत्रकार चिलचिलाती गर्मी में करीब तीन घण्टे इंतज़ार करते रहे कि डीजीपी से संवाद हो सके। हालांकि, डीजीपी की प्रेस कॉन्फ्रेंस का कोई औपचारिक आयोजन नहीं था। लेकिन अपने कर्तव्य पर डटे पत्रकारों ने स्थानीय पुलिस अफसरों से कहा कि वे बैठक के बाद कॉन्फ्रेंस हॉल में ही डीजीपी को मीडिया से मुखातिब करा दें। जवाब मिला कि डीजीपी हॉल से बाहर निकलते वक़्त मीडिया को बाइट देंगे। हुआ भी यही। डीजीपी आए, सरकारी लहजे में महज डेढ़ मिनट में अपनी एकतरफ़ा बात कही और चले गए। पत्रकारों को सवाल करने का मौका ही नहीं मिला।
डीजीपी पत्रकारों से संवाद करते तो उन्हें पुलिस कमिश्नरी वाले इंदौर शहर में क़ानून-व्यवस्था की ज़मीनी स्थिति का अंदाज़ा लगाने में मदद ही मिलती। इस अध्याय को छोड़ दीजिए। ऐसे कई अध्याय हैं। निचोड़ यही है कि लोकतंत्र में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों से मीडिया का संवाद दिनों-दिन कम होता जा रहा है और इसके स्थान पर मीडिया तक एकतरफ़ा संदेश पहुंचाए जा रहे हैं जिनमें सवालों की न तो कोई गुंजाइश है, न ही जवाबों की कोई उम्मीद।