पटना: बिहार की राजनीति का जब भी जिक्र किया जाता है तो कर्पूरी ठाकुर का नाम लिए बिना उसे पूरा नहीं किया जा सकता. कर्पूरी ठाकुर को गरीबों की आवाज और जननायक के रूप में जाना जाता है. गरीबों के लिए किए गए उनके कामों को आज भी याद किया जाता है.कर्पूरी ठाकुर बिहार की राजनीति में गरीबों और दबे-कुचले लोगों की आवाज बनकर उभरे थे. कर्पूरी ठाकुर के जन्म शताब्दी समारोह के आयोजन के बहाने बिहार में कई राजनीतिक दल अपनी ताकत दिखाने की बुधवार को कोशिश करेंगे। जननायक कर्पूरी ठाकुर बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. वह 1967 में बिहार के उप मुख्यमंत्री बने और राज्य में मैट्रिक की परीक्षा में पास होने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म कर दिया. इसके चलते उन्हें आलोचना भी झेलनी पड़ी. यही नहीं बिहार में शराबबंदी कानून लागू करने वाले भी वह पहले मुख्यमंत्री थे.बिहार के भूतपूर्व सीएम कर्पूरी ठाकुर की इस बार जयंती इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि तीन महीने बाद ही लोकसभा का चुनाव होना है। पिछड़े वोटरों पर पकड़ बनाने के लिए जेडीयू, आरजेडी और बीजेपी के अलावा उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोक जनता दल ने भी पूरी तैयारी की है। लेकिन सबके मंसूबों पर भाजपा ने जयंती समारोह की पूर्व संध्या पर ही पानी फेर दिया है। कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की केंद्र सरकार ने घोषणा कर दी है।
बिहार के लिए कर्पूरी ठाकुर के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। वे दो बार बिहार के सीएम रहे। वर्ष 1952 से वे लगातार विधायक चुने जाते रहे। साल 1967 में वे बिहार के उप मुख्यमंत्री, वित्त मंत्री और शिक्षा मंत्री भी रहे। पहली बार वे 1970 में मुख्यमंत्री बने, मगर उनकी सरकार अधिक दिनों तक नहीं चल पाई। दूसरी बार उन्होंने 1977 में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। उनका दूसरा कार्यकाल 1979 तक रहा। अपने राजनीतिक करियर में कर्पूरी ठाकुर सिर्फ एक बार चुनाव नहीं जीत पाए थे। वर्ष 1984 में वे लोकसभा चुनाव हार गए थे। इसलिए कि उसी साल इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी। इसकी वजह से कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति लहर थी।
मुख्यमंत्री रहते कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी नौकरियों में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया। उनकी सादगी और ईमानदारी को आज भी लोग शिद्दत से याद करते हैं। जीवित रहते उन्होंने न कोई संपत्ति खड़ी की और परिवार के किसी व्यक्ति को राजनीति में कदम रखने दिया। उनके निधन के बाद ही परिवार का कोई सदस्य राजनीति में आ पाया। नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ने उनके बेटे रामनाथ ठाकुर को राज्यसभा भेजा। कर्पूरी ठाकुर अगर जीवित रहते तो शायद ही बेटे को राजनीति में आने देते। इसलिए कि शुरू से ही वे इसके विरोधी रहे। भ्रष्टाचार के वे सख्त विरोधी थे। यह अलग बात है कि आज जिन नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं, वे ही अपने को उनका सच्चा अनुयायी साबित करने के प्रयास में जुटे हुए हैं।
कर्पूरी ठाकुर अपने राजनीतिक जीवन में विधायक से लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, पर गांव के पैतृक मकान के अलावा उनके पास कोई दूसरा मकान नहीं था। गांव में भी उनका पुश्तैनी मकान भी कायदे का नहीं था। आज के अघाए नेता कर्पूरी ठाकुर को भुनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं, पर वे उनकी सादगी और ईमानदारी से जरा भी सीख नहीं लेते। वोट के लिए उन्हें भुनाने की खूब कोशिश हो रही है, पर किसी ने यह नहीं सोचा कि उनके आदर्शों पर थोड़ा भी अमल कर लें। आज किसी को भी यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि बिहार में एक सीएम ऐसा भी रहा, जिसने अपने परिवार को इसलिए गांव में रखा कि उसे मिलने वाली तनख्वाह से यह संभव नहीं था।
यह बात आज किसी के गले नहीं उतरेगी कि कर्पूरी ठाकुर अपने लंबे राजनीतिक जीवन के बावजूद एक कार तक नहीं खरीद पाए। विधायकों या सांसदों की कौन कहे, आज तो मुखिया तक कार की सवारी करते हैं। सबके पास अपने वाहन हैं। कर्पूरी ठाकुर सीएम बनने पर रिक्शे की सवारी करने में थोड़ा भी संकोच नहीं करते थे। तीन साल पहले आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव को जब चारा घोटाले में जमानत मिली तो उन्होंने अपनी पुरानी जीप निकाली और बड़े फख्र से कहा कि कर्पूरी जी को वे इसी जीप से घुमाया करते थे। हालांकि सच ये नहीं है। कहा जाता है कि विधानसभा में लालू और कर्पूरी ठाकुर साथ बैठे थे। किसी काम से कर्पूरी जी को बाहर जाना था। उनके पास वाहन तो था नहीं। इसलिए एक पर्ची लिख कर उन्होंने लालू की ओर बढ़ाई। लालू ने पर्ची पर लिख कर वापस कर दी कि जीप में पेट्रोल नहीं है। आप खुद क्यों नहीं गाड़ी खरीद लेते हैं।
कर्पूरी ठाकुर के निजी सहायक (पीए) रह चुके वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर बताते हैं कि वर्ष 1977 में पटना के कदमकुआं स्थित चरखा समिति भवन में जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन मनाया जा रहा था। वहां बड़े समाजवादी नेताओं का जुटान हुआ था। भूत पूर्व पीएम चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख जैसे नेता वहां आए थे। कर्पूरी ठाकुर तब बिहार के मुख्यमंत्री थे। जब वे वहां पहुंचे तो उनके कुर्ते पर चंद्रशेखर की नजर पड़ी। कुर्ता फटा हुआ था। चप्पल भी टूटी हुई थी। अचानक चंद्रशेखर उठे और अपने कुर्ते का अगला भाग फैला कर सबसे चंदा देने को कहा। उन्होंने कहा कि कर्पूरी जी के लिए कुर्ता फंड बनाना है। तत्काल कुछ लोगों ने उनके फाड़ में कुछ रुपये दिए। पैसा देते हुए चंद्रशेखर ने कहा कि कर्पूरी जी, इन रुपयों से अपने लिए एक कायदे का कुर्ता-धोती खरीद लीजिए। कर्पूरी ठाकुर ने पैसा ले लिया और कहा कि इसे हम मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा देंगे।
कर्परी ठाकुर पहली बार साल 1970 में बिहार के मुख्यमंत्री बने. उसके बाद साल 1971 में उन्होंने किसानों को बड़ी राहत देते हुए गैर- लाभकारी जमीन पर मालगुजारी टैक्स को खत्म करने का ऐलान कर दिया. साल 1977 में मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने नौकरियों में मुंगेरीलाल कमीशन लागू किया जिससे गरीबों और पिछड़ों को आरक्षण का लाभ मिला. ऐसे कर वह सवर्णों के दुश्मन बन गए. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और जननायक कर्पूरी ठाकुर का जन्म समस्तीपुर जिले के पितौझिया गांव में हुआ था. इनके पिता गोकुल ठाकुर गांव के सीमांत किसान थे. जो अपने पारंपरिक पेशा, नाई का काम किया करते थे. कर्पूरी ठाकुर भारत छोड़ो आंदोलन में जेल भी गए और ढाई साल की सजा काटी. ऐसा कहा जाता है कि बिहार की राजनीति में जननायक कर्पूरी ठाकुर को कभी नहीं भुलाया जा सकता.
जननायक कर्पूरी ठाकुर 22 दिसंबर 1970 को पहली बार मुख्यमंत्री बने. लेकिन वह इस कुर्सी पर 2 जून 1971 तक ही रह पाए. उसके बाद 24 जून 1977 को वह दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. इस बार वह 21 अप्रैल 1979 तक राज्य के सीएम रहे. वह बिहार के नाई परिवार से आते थे. उन्होंने अखिल भारतीय छात्र संघ से राजनीति में कदम रखा. लोकनायक जयप्रकाश नारायण और समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया इनके राजनीतिक गुरु थे.
कर्पूरी ठाकुर जब एक बार बिहार विधानसभा का चुनाव जीते तो उसके बाद वह कभी विधानसभा चुनाव नहीं हारे. उनकी सादगी ऐसी थी कि वो कभी अपने सामने दूसरे को हैंडपंप नहीं चलाने देते थे. वह खुद ही अपने हाथों से पानी निकालते और अपने कपड़े खुद ही धोते थे. कर्पूरी ठाकुर की समस्तीपुर की एक यात्रा काफी चर्चा में रही. वह 1969 में चुनावी दौरे से लौटकर रात में समस्तीपुर आए. वह अधिवक्ता शिवचंद्र प्रसाद राजगृहार के आवास पर रुके.
कर्पूरी ने बाल्टी और मग मांगा और रात में ही अपनी धोती और कुर्ते को खुद साफ कर सूखने के लिए डाल दिया. इसके बाद उन्होंने खाना खाया और सो गए. जब वह सुबह उठे तो उनकी धोती और कुर्ता सूखे नहीं थे. उन्होंने धोती सुखाने के लिए खुद एक छोर पकड़ा और दूसरा छोर एक साथी को पकड़ा दिया. उसके बाद वह धोती और गंजी को कुछ देर तक झटकते रहे. जब कपड़े पहनने लायक हो गए तो बिना आयरन किए ही उन्होंने धोती और कुर्ता पहना और आगे निकल गए.