विशेष प्रतिनिधि
भोपाल.
क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय जनता पार्टी या भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से नाराज है ? यह सवाल इन दिनों सभी दूर गूंज रहा है। विपक्षी दलों के नेता संघ प्रमुख के नागपुर के संबोधन के हवाले से भाजपा को निशाने पर ले रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत के हाल ही में नागपुर में संघ के प्रचारकों और विस्तार को के शिक्षा वर्ग में दिए गए समापन भाषण की चर्चा इन दोनों इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में छाई हुई है।
डॉ. भागवत के भाषण को भाजपा और संघ के बीच बढ़ती दूरी के संदर्भ में देखा जा रहा है। इस संदर्भ में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा द्वारा इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप को दिए गए एक साक्षात्कार को भी कड़ी के रूप में जोड़ा जा रहा है। इस साक्षात्कार में जेपी नड्डा ने कहा था कि भाजपा को अब संघ की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वो सक्षम हो गई है।
मीडिया और विपक्षी दल भले ही संघ प्रमुख के संबोधन की अपने-अपने हिसाब से व्याख्या कर रहे हो लेकिन इसमें जरा भी सच्चाई नहीं है कि संघ और भाजपा के बीच दूरी बढ़ रही है या संघ भाजपा से नाराज है। संघ को यदि भाजपा से नाराजगी जताने की आवश्यकता पड़ेगी तो इसके लिए ऐसे अनेक प्लेटफार्म हैं जिनके जरिए संघ अपनी बात कह सकता है।
संघ और भाजपा के बीच नियमित तौर पर जिले से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर समन्वय बैठकें होती हैं। इन बैठकों के माध्यम से भाजपा और संघ एक दूसरे की गतिविधियां बताते हैं और यदि कोई दिक्कत हो तो इस संबंध में चर्चा भी करते हैं। संघ प्रमुख पूरे संघ परिवार के अभिभावक, फिलोसोफर और गाइड माने जाते हैं। यदि डॉक्टर मोहन भागवत को भाजपा नेतृत्व से कोई बात कहनी होगी तो वो जेपी नड्डा, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ या किसी भी अन्य नेता को दिल्ली या नागपुर तलब करके अपनी बात रख सकते हैं।
इसलिए डॉक्टर मोहन भागवत के नागपुर के संबोधन को संघ की नाराजगी की बजाय नसीहत के तौर पर देखना चाहिए। संघ प्रमुख ने यह नसीहत सभी राजनीतिक दलों को दी है। जैसे उनका कहना कि, चुनावी भाषणों में झूठ का उपयोग नहीं करना चाहिए,ये बात कांग्रेस और विपक्षी दलों के लिए थी,जिन्होंने संविधान बदल देंगे और आरक्षण समाप्त करने की बात बार-बार दोहराई थी।
विपक्षी दलों को दुश्मन नहीं मानने की सलाह उन्होंने भाजपा और विपक्ष के बड़बोले नेताओं को दी थी। भाजपा और विपक्ष के अनेक नेताओं ने इस तरह के भाषण दिए मानो राजनीतिक अदावत निजी दुश्मन की तरह हो। यह भी स्मरण रखना होगा कि संघ प्रमुख ने अपना संबोधन संघ के विस्तारकों और प्रचारकों के तृतीय वर्ष के शिक्षा वर्ग के समापन के दौरान दिया। संघ के विस्तारक और प्रचारक पूर्णकालिक कार्यकर्ता होते हैं।
संघ प्रमुख उन्हें सिद्धांत रूप से राजनीति की ओर वस्तुनिष्ठ होकर देखने की सलाह दे रहे थे। उनका संबोधन अपने उन कार्यकर्ताओं के लिए था जिन्होंने घर बार छोड़कर अपना सारा समय संघ को देने का निश्चय किया है। संघ प्रमुख अपने कार्यकर्ताओं को यह बताना चाहते थे कि भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने आप में स्वतंत्र संगठन है।
संघ प्रमुख इस तरह की नसीहत कई बार देते हैं, लेकिन चूंकि चुनाव परिणामों में भाजपा को बहुमत नहीं मिला है, इसलिए उनके संबोधन को संघ की नाराजगी से जोड़कर देखा जा रहा है। आमतौर पर डॉ मोहन भागवत बेहद संयमित और मर्यादा के भीतर रहकर अपनी बात कहते हैं।
अन्यथा उनके पूर्ववर्ती दिवंगत सरसंघचालक केएस सुदर्शन बेहद कठोर शब्दों में तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेई सरकार और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी की फंक्शनिंग को निशाने पर लेते थे। भाजपा के मौजूदा नेतृत्व से भी संघ को कुछ शिकायतें हैं, लेकिन उन शिकायतों को जताने के लिए संघ नेतृत्व को सार्वजनिक मंच का इस्तेमाल करने की आवश्यकता नहीं है।
नागपुर में डॉक्टर भागवत ने अपने संबोधन में कहा था कि जब चुनाव होता है तो मुकाबला जरूरी होता है. इस दौरान दूसरों को पीछे धकेलना भी होता है, लेकिन इसकी एक सीमा होती है। भागवत के मुताबिक इस बार चुनाव ऐसे लड़ा गया, जैसे यह युद्ध हो।जिस तरह से चीजें हुई हैं, जिस तरह से दोनों पक्षों ने कमर कसकर हमला किया है, उससे विभाजन होगा, सामाजिक और मानसिक दरारें बढ़ेंगी।
उनके मुताबिक संसद में दो पक्ष जरूरी हैं,लेकिन हर स्थिति में दोनों पक्षों को मर्यादा का ध्यान रखना होता है. सरकार को नसीहत देते हुए संघ प्रमुख ने कहा कि विपक्ष को विरोधी पक्ष की जगह प्रतिपक्ष कहना चाहिए। भागवत ने इस दौरान ये भी कहा- ‘जो मर्यादा का पालन करते हुए काम करता है, गर्व करता है, लेकिन अहंकार नहीं करता, वही सही अर्थों में सेवक कहलाने का अधिकारी है।
मोहन भागवत मणिपुर पर भी बोले. कहा, 'मणिपुर एक साल से शांति की राह देख रहा है. बीते 10 साल से राज्य में शांति थी, लेकिन अचानक से वहां कलह होने लगी या कलह करवाई गयी, उसकी आग में मणिपुर अभी तक जल रहा है, त्राहि-त्राहि कर रहा है, उस पर कौन ध्यान देगा? जरूरी है कि इस समस्या को प्राथमिकता से सुलझाया जाए.' माना जा रहा है कि भागवत का ये संदेश भी सरकार के लिए ही है।
द इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में जेपी नड्डा ने कहा था कि पहले भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जरूरत थी, लेकिन आज भाजपा सक्षम है। आज पार्टी अपने आप को चला रही है। जब उनसे ये सवाल किया गया कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय और अब के बीच संघ की स्थिति कैसे बदली है? इस पर नड्डा बोले- 'शुरू में हम अक्षम होंगे. थोड़ा कम होंगे. तब संघ की जरूरत पड़ती थी. आज हम बढ़ गए हैं और सक्षम हैं तो भाजपा अपने आप को चलाती है।यही अंतर है। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कोई नई बात नहीं कही लेकिन उनकी बात कहने का तरीका और समय ने कोई नई बात नहीं कही लेकिन उनकी बात कहने का तरीका और टाइमिंग गलत थी। उनके इस इंटरव्यू से भ्रम फैला।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ राजनीति पर नहीं बल्कि “राष्ट्र निर्माण गतिविधियों ” पर केंद्रित है। 1977 और 2014 के आम चुनावों को छोड़कर जब संघ को पार्टियों के लिए प्रचार करने की ज़रूरत का एहसास हुआ, तब से वह “सक्रिय राजनीति से दूर रहा है।”आरएसएस हमेशा से कहता रहा है कि वह एक सांस्कृतिक संगठन है और उसका न तो कोई राजनीतिक उद्देश्य है और न ही वह किसी राजनीतिक गतिविधि में शामिल है। आरएसएस इस बात से इनकार करता है कि उसका भाजपा की राजनीति, निर्णयों या नीति निर्धारण या भाजपा के चुनावी प्रयासों से कोई लेना-देना है।
नागपुर की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में संघ ने मतदान बढ़ाने के उद्देश्य से अभियान चलाने का निर्णय लिया था। यह भाजपा की परोक्ष रूप से मदद करने का एक तरीका था, लेकिन संघ की कुछ राज्य इकाइयों ने स्थानीय स्थितियों के हिसाब से चुनाव से दूर रहने का निर्णय लिया।
खासतौर पर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और महाराष्ट्र के संघ कार्यकर्ता स्थानीय भाजपा नेतृत्व से नाराज थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मोटे तौर पर संघ कार्यकर्ताओं में भाजपा को लेकर नाराजगी थी। संघ में यह परंपरा है कि संगठन की स्थानीय इकाइयां राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के हिसाब से अलग से निर्णय लेती रही हैं।