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रफ्तार तो कर्ज की भी तेज है...!

आपकी कलम Published by: paliwalwani Updated Wed, 17 Jan 2024 01:12 AM
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रफ्तार तो कर्ज की भी तेज है...!

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ ने शुक्रवार को भारत की आर्थिक स्थिति की समीक्षा करते हुए एक रिपोर्ट जारी की है, इसके मुताबिक, भारत पर लगातार कर्ज बढ़ता जा रहा है। रिपोर्ट में कहा गया, सरकार इसी रफ्तार से उधार लेती रही तो 2028 तक देश पर जीडीपी का 100 प्रतिशत कर्ज हो सकता है। ऐसा हुआ तो कर्ज चुकाना मुश्किल हो जाएगा।

एक ओर तो हमारे देश भारत ने फिर से दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था का खिताब अपने नाम कर लिया है। ज्यादातर आर्थिक गतिविधियां सही रास्ते पर हैं। लेकिन दूसरी ओर समस्या ये है कि सरकार और राज्यों पर बहुत ज्यादा कर्ज हो गया है और ये लगातार बढ़ता ही जा रहा है। यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसा संगठन भी इसे अपनी रिपोर्ट में शामिल कर रह है। अगर इसे कम नहीं किया गया तो हमें इस अच्छे मौके का पूरा फायदा नहीं उठा पाएंगे।

2019-20 में महामारी से पहले ही ये कर्ज बढऩे लगा था, जो तब से कम नहीं हो सका है। 2022-23 में सरकारों का कुल कर्ज सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 86.5 प्रतिशत था, जो पिछले 40 सालों में सबसे ज्यादा में से एक है। ये पिछले साल के 85.2 प्रतिशत से भी ज्यादा है। वित्त मंत्रालय ने आईएमएफ की रिपोर्ट पर असहमति जताई।

वित्त मंत्रालय बयान के जरिये कहता है कि आईएमएफ का भारत पर 100 प्रतिशत कर्ज का अनुमान गलत है। मौजूदा कर्जा भारतीय रुपए में है, इसलिए कोई समस्या नहीं है। इसके अलावा, मंत्रालय का कहना है कि सरकारी कर्जा (राज्य और केंद्र दोनों सहित) वित्त वर्ष 2020-21 में लगभग 88 प्रतिशत से घटकर 2022-23 में लगभग 81 प्रतिशत हो गया है। यह कर्जा अभी भी 2002 की तुलना में कम है।

इससे जुड़े कुछ खास मुद्दों पर पहले नजर डालते हैं। भारत में आमतौर पर आर्थिक समस्याओं के साथ ऊर्जा की कीमतें भी बढ़ जाती हैं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। पिछले 10 साल से कच्चे तेल की कीमत $100 प्रति बैरल से नीचे रही है, जो हमारे लिए फायदेमंद है। इसलिए चालू खाता घाटा (सीएडी) भी जीडीपी का 2 प्रतिशत से कम रहा है, लेकिन दूसरी तरफ सरकारों का कुल घाटा 9.4 प्रतिशत रहा है।

यह काफी ज्यादा है। कर्ज ज्यादा होने का एक कारण ये भी बताया जा रहा है कि निजी कंपनियां मु_ी ठीक से खोल नहीं रही हैं। वो अर्थव्यवस्था में कम पैसा लगा रही हैं। दूसरी तरफ बैंकों और कंपनियों ने अपने लोन कम कर दिए जिससे निजी निवेश कम हो गया है। इसी वजह से सरकार को ज्यादा पैसा लगाकर अर्थव्यवस्था को बढ़ाने की कोशिश करनी पड़ी।

आंकड़े बताते हैं कि फिलहाल कुल निवेश जीडीपी का केवल 32 प्रतिशत है, जबकि 2011-12 में ये 38-39 प्रतिशत था। पिछले दशक में सरकार ने ही ज्यादा निवेश किया है। अर्थव्यवस्था अब बेहतर होती दिख रही है। इस आधार पर निजी निवेश बढऩा चाहिए, लेकिन अगर सरकार का कर्ज कम नहीं हुआ तो निजी कंपनियां ज्यादा ब्याज चुकाने के लिए मजबूर होंगी। तब निवेश और कम हो जाएगा।

विशेषज्ञ बताते हैं कि आने वाले बजट में सरकारों को कर्ज कम करने का रोडमैप बताना चाहिए। यह निजी निवेश के लिए जरूरी है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो ज्यादा ब्याज दरें आर्थिक विकास की गति धीमी कर देंगी। पहले भी आर्थिक समस्याओं ने विकास की रफ्तार को धीमा किया है। केंद्र सरकार के केबिनेट स्तर के अधिकारियों की बैठक में पूर्व में यह मुद्दा उठ चुका है और इसमें यह भी कहा गया था कि सरकारों को फ्रीबीज योजनाओं को बंद करने पर विचार करना चाहिए। यानि मुफ्त की रेवडिय़ां बांटने पर रोक की बात कही जा रही है। परंतु कोई भी पार्टी इसके लिए तैयार नहीं है।

कुछ पार्टियां दूसरों की योजनाओं को रेवड़ी बताते हैं और अपनी नकद बांटने की योजनाओं को गारंटी। साथ ही यह भी कहा जाता है कि हम फलां वर्ग का सशक्तीकरण कर रहे हैं। ये मुफ्त का वितरण कर्ज लेकर किया जा रहा है, जिसके भुगतान के लिए सामान्य वर्ग पर लगातार करों का बोझ बढ़ाया जा रहा है।

फिर भी, राज्य सरकारों से लेकर केंद्र सरकार को कर्ज को लेकर थोड़ा तो सोचना पड़ेगा। हम भले ही आईएमएफ की रिपोर्ट को सिरे से नकार दें। खारिज कर दें। लेकिन कहीं न कहीं ये बढ़ते कर्ज सर दर्द तो बढ़ा ही रहे हैं।

सरकारें बजट के बराबर कर्ज को नकारने के लिए कर्ज का आंकड़ा ही झुठलाने लगी हैं। लेकिन इससे होगा क्या? रिजर्व बैंक को ही गलत आंकड़े दिखाकर और कर्ज लेने से क्या हालात सुधर जाएंगे? हम तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था में यदि कर्ज का प्रतिशत भी लगातार बढ़ाते रहेंगे, तो क्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारी साख बनी रहेगी? इस पर भी हमें विचार करना ही होगा। केवल आत्म संतुष्टि के लिए हम ये सब कर रहे हैं? क्या कर्ज पर नियंत्रण करते हुए हमें अपनी आय के साधन नहीं बढ़ाने चाहिए? अंतरराष्ट्रीय स्तर की रिपोर्ट को खारिज करने से क्या कर्ज कम हो जाएगा? यथार्थ को स्वीकार तो करना ही चाहिए।

● संजय सक्सेना

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