देख रहे हो कांग्रेस के कर्णधारों? वो ही फिर से मैदान में उतर आए है जिन्हें आपने टिकट के लायक नही माना। वे ही असली कांग्रेसी पार्टी के नोटा अभियान के लिए सड़क पर फिर पसीना बहाने उतर आए, जिनकी अनदेखी से पार्टी की नाक कट गई। क्या हुआ उनके पास पेसा, पावर, रसूख नही लेकिन कांग्रेस के प्रति अटूट ही नही अटाटूट निष्ठाएं तो हैं। आज के दौर में ये ही तो चाहिए न? सिर्फ निष्ठा। फिर कर्णधारों आपने पैसा, रसूख व धनबल क्यो चूना? वो भी जमीनी कार्यकर्ता व नेताओ के आगाह के बाद। जवाब तो देना ही पड़ेगा।
...डूब मरे कांग्रेस, चुल्लू भर में। वे सब जो स्वयम को बड़ा नेता मानते हैं, वे भी जल समाधि ले लेवे। ये देश के सबसे पुराने दल के लक्षण हैं? आजादी की लड़ाई लड़ने का दांवा करने वाली पार्टी के नेताओ के ये " लच्छन " हैं? चलते चुनाव में ही उम्मीदवार विरोधी से जा मिले, ये तैयारी थी तुम्हारी चुनाव की? पार्टी की भी और बड़े नेताओं की भी। वो भी उस चुनाव में जो " देश मे लोकतंत्र बचाने" के लिए हो रहा हैं। जिसमे पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने पूरे प्राण झोंक रखे हैं। जिसके लिए तमाम मतभेद दूर कर " इंडिया गठबंधन" बना। उस चुनाव की ऐसी लचर तैयारी? हार जीत अपनी जगह लेकिन ऐसी खानापूर्ती तो पंच सरपँच के चुनाव में भी नही होती। जैसी लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस ने इंदौर में की। जीत तो दूर, हारने में भी पैसे का ज्ञान गणित लगाया गया?
धिक्कार हैं ऐसे दल व उसके कर्णधार नेतृत्व को जिसकी नजर में पार्टी की साख, विरासत को बनाये रखने से ज्यादा धन नजर आता हैं। वह भी तब, जब जमीनी नेता और पसीना बहाने वाले कार्यकर्ता हाथ जोड़कर बोल रहे कि हमे टिकट दे दो। पैसा नही है तो क्या, दमदारी से चुनाव लड़कर दिखाएंगे। ऐसा कहने वाले वे ही नेता-कार्यकर्ता थे जो बेहद विपरीत हालत में कांग्रेस के लिए सड़कों पर निकलते है और पार्टी को जिंदा रखे हुए हैं। ये बरसो से सड़क पर ही है। ये अकस्मात दल में प्रकट नही हुए थे। ये सब आजमाए हुए थे। दल में भी और विरोधी दल में भी। भाजपा के एकछत्र शासन में भी इनका मैदान में विभिन्न आंदोलनों के साथ डटा रहना ही इन्हें ख़ालिस कांग्रेसी बनाता हैं। इन्हें धता बताकर जिसका साथ दिया, वो पार्टी को खल्लास कर गया।
मौका था जमीनी नेता-कार्यकर्ता को मैदान में उतारने का। सुनहरा अवसर था, आजमा तो लेते एक बार। जैसे कभी भाजपा ने किया था 1989 में, गुमनाम से सुमित्राजी के चेहरे के संग जो बाद में समूचे शहर की सुमित्रा ताई हो गई। तब कांग्रेस, आज की भाजपा जैसी एक छत्र शासन के साथ देश प्रदेश में " छत्रपति" थी। देश के गृहमंत्री के समक्ष तब भाजपा ने सायकिल से चलने वाली एक गृहणी को मैदान में उतारा था। परिणाम सामने है। तब से अब तक कांग्रेस का शहर में कोई " धणी-धोरी" नही रहा। इसका मतलब ये नही कि आप हारने के लिए भी धनबली मैदान में उतारो।
अब तक ये ही तो करती आई है कांग्रेस। एक से बढ़कर एक धनबली। संघवी से लेकर पटेल कुनबे तक। जीत पाए लोकसभा का चुनाव? तो फिर इस बार किसी " गरीब" को ही उतारकर देख लेते। उसके चुनाव में " दो चार आना" अपनी जेब से ढीला कर देते। क्या बन बिगड़ जाता? कोई कंगले हो जाते क्या? ओर यू भी कंगले हो क्या जो हारने के लिए भी धनबली तलाशा गया? क्या हुआ जमीनी नेता खर्चा नही कर पाता लेकिन कांग्रेस के लिए जी-भरकर किला तो लड़ाता। एक उत्साह तो जगाता औसत कांग्रेसी में भी कि अपना दल भी " सुमित्राजी" ढूंढता हैं। एक उम्मीद जागती पार्टी में कि जो जमीन पर पसीना बहाते है, उनके पास पैसा पावर रसूख भले ही न हो, फिर भी उनको भी टिकट मिलता हैं। ऐसा कांग्रेस कब करेगी? बरसो हो गए, ऐसा होते देखा नही। कभी करती होगी पार्टी इस तरह का काम, इंदौर में तो करीब 4 दशक से ऐसा होते देखा नही।
पार्टी प्रदेश मुखिया यू तो " जमाने भर के चतरे" बनते है लेकिन देश के सबसे बड़े चुनाव में, प्रदेश के सबसे बड़े शहर में पार्टी के साथ साथ स्वयम का भी मुंह काला करा बैठे। इंदौर की दुर्गति का असर अगल बगल की सीटों पर क्या होगा? इसका रत्तीभर भी भान है क्या कर्णधारों को? ऐसे समय जब आपका विरोधी दल दिन रात घात लगाकर शिकार कर रहा है, तब आप मचान पर बैठकर मोर्चाबंदी करने की जगह खाट पर लेटकर आराम कर रहे हो। फिर आपका चुनाव तो फुस्स होना ही है भले ही आप बम नाम का उम्मीदवार ढूंढ कर लाये। अब उसी बम ने पार्टी की नाक काट दी। अब इस कटी नाक के साथ शहर से नोटा का आव्हान किस मुंह से किया जा रहा हैं? प्रतिपक्ष की अहम जिम्मेदारी आपने नही निभाई और जनता से उम्मीद? ये बेमानी ही नही, बेईमानी भी हैं।
लाखो लाख वोटर्स है आज भी कांग्रेस के। भाजपा के भरचक दौर में भी इंदौर से कांग्रेस की झोली में लाखों वोट गिरते हैं। पार्टी विचार से जुड़े परिवार हजारो की संख्या में हैं। मोदी और भाजपा के सब तरफ बजते डंके के बीच भी उम्मीद से भरे हजारो हजार कार्यकर्ता हैं कि पार्टी फिर उठ खड़ी होगी। दो अंकों में सिमटने के बाद भी आज भी लोग उम्मीद करते है कि कांग्रेस खत्म नही होगी। हर चुनाव देश के किसी न किसी कोने से पार्टी को संजीवनी दे देता है, साथ ही ये सन्देश भी कि भारत कांग्रेस मुक्त नही हो रहा। हर दल के जीवनकाल में ऐसे दौर आते है जब वह सिमट जाते है। लेकिन पार्टीजनों के जज्बे से दल फिर बुरे दौर से उभर जाते है।
बावजूद इसके कांग्रेस व उसके कर्णधार कुछ सीखने को ही तैयार नही। 35 साल से इंदौर में हार रही है कांग्रेस। आखिर कब सुधार होगा? ये हताशा ही नेताओ को दल छोड़ने पर मजबूर कर रही है। इस बार तो उम्मीदवार ही हाथ के पंजे का प्रचार करते करते कमलदल में जा पहुँचा। अब कांग्रेस का वोटर्स क्या करें? कहा जाए, किसको वोट करे? वे अल्पसंख्यक मतदाता क्या करे जिनके समक्ष भाजपा से असहमति के लिए कांग्रेस ही एकमेव विकल्प है? पार्टी और नए प्रदेश मुखिया से इस " 400 पार" वाले चुनाव में ऐसी वर्किंग की उम्मीद नही थी। न दल को थी, न कार्यकर्ताओ को औऱ न इंदौर शहर को।
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