आलेख : बादल सरोज
मूर्तियों और मंदिरों में विश्वास करने वाली धार्मिक परम्पराओं में प्राण प्रतिष्ठा के साथ ही सब कुछ पूरा हुआ मान लिया जाता है। उद्घाटन के नाम पर गर्भगृहों में फीते नहीं कटते। मूर्तियों के अनावरण नहीं होते। इतने लम्बे अंतराल के बाद झंडे नहीं फहराए जाते। इसके बाद भी बाकी जो भी होता है, वह संबंधित धर्म के प्रमुख आचार्यों द्वारा निर्धारित अनुष्ठानों से होता है -- राजा-महाराजाओं के हाथों या राजनेताओं के कर कमलों से नहीं होता। मगर यह बात जब प्राण प्रतिष्ठा के समय नहीं मानी गयी थी, तो कथित ध्वजारोहण के समय तो सवाल भी नहीं उठता।
कुल मिलाकर यह कि 2025 की 25 नवम्बर को अयोध्या में जो हुआ, वह जो दिखा या दिखाया गया, उससे ज्यादा जो कहा और बताया गया, उसमें निहित और समाहित संदेश में पढऩा और समझना होगा। इस दिन अयोध्या में दिए गए भाषणों की पंक्तियों के बीच छुपे शब्द जो भाव व्यक्त करते हैं, वे लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, संघीय गणराज्य भारत के लिए -- जैसा कि इस दिन दिए भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है -- सही में ‘टर्निंग पॉइंट’ हैं।
इस मंदिर निर्माण के कथित रूप से पूर्ण होने के लिए 10 फीट चौड़े और 20 फीट लम्बे भगवा ध्वज को फहराए जाने के पीछे के धर्मेतर मंतव्य को दिखावे के लिए भी नहीं छुपाया गया। उसके राजनीतिक उद्देश्य को खुद प्रधानमंत्री मोदी ने साफ़-साफ़ शब्दों में स्पष्ट करते हुए कहा कि, ‘‘यह धर्म ध्वज सिर्फ एक झंडा नहीं है । यह भारतीय सभ्यता के पुनरुत्थान का प्रतीक है। इसका केसरिया रंग, सूर्यवंश का चिन्ह, पवित्र ‘ॐ’, और कोविदार वृक्ष मिलकर, राम राज्य की भव्यता को दर्शाते हैं।
यह ध्वज एक प्रतिज्ञा, एक उपलब्धि और संघर्ष से सृजन तक की यात्रा का प्रतीक है, सदियों की तपस्या का साकार रूप है ।’’ बची-खुची कसर समारोह के तीसरे वक्ता मुख्यमंत्री योगी ने पूरी कर दी और दावा किया कि ‘‘मंदिर के शिखर पर फहराता केसरिया ध्वज केवल एक पताका नहीं, बल्कि धर्म, मर्यादा, सत्य-न्याय और राष्ट्रधर्म का भी प्रतीक है।’’
कहने की आवश्यकता नहीं कि मोदी जिस पुनरुत्थान की बात कर रहे हैं, वह कुछ हजार वर्ष में बनी और समृद्ध हुई समावेशी भारतीय सभ्यता का नहीं, बल्कि जिस संगठन का वे प्रतिनिधित्व करते है, उसकी धारणा का दोहराया जाना है। जिस भारत के वे प्रधानमंत्री है, उस देश के एक राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आने का विलोम है, जिस संविधान के तहत वे इस पद पर बैठे हैं, उस संविधान का निषेध है। यह विकसित भारत की नहीं, उस उस हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना है, जिसे इस देश की जनता हमेशा से ठुकराती रही है। उसी हिन्दू राष्ट्र की मंशा, 25 नवम्बर को इस रूप और सार दोनों में अभिव्यक्त हो रही थी।
धार्मिक विविधताओं की भरी-पूरी विरासत वाले, शैव, शाक्त, वैष्णव धर्मों सहित बौद्ध, जैन, सिख की पुरानी और मजबूत परम्पराओं और इस्लाम, ईसाई, पारसी आदि की न जाने कब से मौजूदगी वाले देश में, धर्म की सिर्फ एक धारा को राष्ट्र धर्म बताना और भगवा ध्वज को भारतीय सभ्यता के पुनरुत्थान का पर्याय बताते हुए व्यवहार में उसे राष्ट्र ध्वज से भी ऊंचे स्थान पर बैठाना वाकई एक टर्निंग पॉइंट है--एक खतरनाक टर्निंग पॉइंट। यह काम जिस संगठन आरएसएस के प्रमुख की विशेष उपस्थिति में किया जा रहा था, वह शुरू से यही मानता और कहता रहा है। यह राष्ट्रीय ध्वज को भगवा से प्रस्थापित करने की प्रक्रिया का टर्निंग पॉइंट है।
याद दिलाने की जरूरत है कि तिरंगा झंडा भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शहादतों के बीच कुर्बानियों के प्रतीक के रूप में उभर कर, राष्ट्रीय ध्वज के रूप में सामने आया था। आजादी के महासंग्राम में भाग लेने से बचने वाले, इंग्लैंड की महारानी को माफीनामे की चिट्ठियां लिखने और पूरे समय अंग्रेजी राज की हिमायत करने वाले, इस कुनबे के इस तिरंगे झंडे के बारे में कितने उच्च विचार हैं, इस बारे में पहले भी लिखा जा चुका है, मगर ताजे सन्दर्भ में उसे दोहराने में भी हर्ज नहीं।
इन्होंने उस समय लिखा-पढ़ी में कहा था कि, ‘‘जो लोग किस्मत के दांव से सत्ता में आ गए हैं, वे हमारे हाथ में तिरंगा दे सकते हैं, लेकिन इसको हिंदुओं द्वारा कभी अपनाया नहीं जाएगा और न ही इसका कभी हिंदुओं द्वारा सम्मान होगा।’’ इनके तब के प्रमुख गोलवलकर ने तो यहां तक बोला था कि, ‘‘तीन का अंक और शब्द ही अपने आप में एक बुरा अपशकुन है। इसलिए तीन रंगों वाले झंडे का निश्चित रूप से एक बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव होगा और यह देश के लिए हानिकारक साबित होगा।’’
इसे विदेशी नक़ल तक बताया था और इसके हरे रंग को मुसलमानों का करार दिया था। बाईस महीने पहले बन चुके राम मन्दिर के उद्घाटन के बहाने भगवा का महिमा गान उसी पुराने आख्यान को विमर्श में लाने का यत्न है। एक राष्ट्र, एक धर्म, एक नस्ल, एक भाषा, एक संस्कृति की शुद्ध अभारतीय धारणा के लिए, राम के प्रति लोगों की आस्था और उनके धार्मिक विश्वास के दुरुपयोग का प्रयत्न है।
बात सिर्फ यहीं तक नहीं है। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में इसे और भी खतरनाक मुकाम तक पहुंचाने का साफ़-साफ़ संकेत दिया है। उन्होंने संविधान को भी निशाने पर लेते हुए बोला कि ‘‘कहा जाता है कि हमारा संविधान विदेशी संविधानों से प्रेरित है।’’ उन्होंने न तो यह बताया कि ऐसा कौन कहता है, ना उन्होंने ऐसा कहे जाने को गलत ही बताया। भारत को लोकतंत्र की जननी बताने, लोकतंत्र हमारे डीएनए में है, के गोल-मोल दावे के साथ बात अधूरी ही छोड़ दी। इस छोड़े गए हिस्से को संदर्भों के साथ पढऩे के बाद ही उनकी असली मंशा पर पहुंचा जा सकता है।
दोहराने की जरूरत नहीं कि यह आरएसएस ही था, जिसे यह संविधान कभी नहीं भाया। इसने संविधान सभा के गठन का ही विरोध किया था और खुले आम यह मांग की थी कि स्वतन्त्रता के बाद के भारत को, भारत के हजारों साल पुराने संविधान -- मनुस्मृति--के मुताबिक़ चलाया जाना चाहिए। ये संघ और उसके तबके प्रमुख गोलवलकर ही थे, जिन्होंने बार-बार भारत के संविधान को पश्चिमी देशों की नक़ल बताया था। मोदी अब लोकतंत्र की जननी होने का दावा कर रहे हैं, लेकिन उनके संघ ने सार्वत्रिक बालिग़ मताधिकार को मुण्ड-गणना कह कर धिक्कारा था।
उनके बाद बने हर सरसंघचालक ने संविधान को बदलने की बात बार-बार दोहराई। इस संदर्भ के साथ 25 नवम्बर 2025 को प्रधानमंत्री मोदी के ‘‘अगले 10 वर्षों में भारत को ‘गुलामी की मानसिकता’ से मुक्त करने’’ के आह्वान का असली निहितार्थ समझा जा सकता है।
यहां मैकाले की शिक्षा पद्वत्ति का हवाला देकर अपनी बात को प्रामाणिकता देने के पीछे भी उनका आशय क्या है, यह कुछ दिन पहले रामनाथ गोयनका की स्मृति में दिए व्याख्यान में बता चुके थे, जब उन्होंने उस महान पुरानी शिक्षा प्रणाली का बखान किया था, जिसमें महिलाओं और वर्णाश्रम की निचली पायदानों पर बैठे समुदायों की दशा क्या थी, यह सब जानते हैं।
कुल मिला कर 25 नवम्बर 2025 का अयोध्या कांड, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के 100वें वर्ष में भारत को उसके एजेंडे के अनुरूप ढालने की दिशा में गढ़े जा रहे आख्यान का ही एक और रूप था, जो संविधान को बदले बिना ही बदल देने के अन्य तरीकों से भी अमल में लाया जा रहा है।
देश के 44 से अधिक श्रम कानूनों को 4 लेबर कोड्स में बदल देना इसी की एक मिसाल है। बिना विस्तार में जाए सिर्फ सार में कहें, तो ये ऐसे लेबर कोड हैं, जिनमें दिए आधे-अधूरे प्रावधान भी अमल में लाने का कोई तंत्र न देकर श्रमिकों को वास्तविक अर्थों में गुलाम बनाने का रास्ता साफ करते हैं। भारत का संविधान संगठित होने का अधिकार बुनियादी अधिकारों में शामिल करता है, मगर ये लेबर कोड्स उसको भी छीन लेते हैं।
दूसरी मिसाल मतदाता सूचियों के गहन पुनरीक्षण--एसआइआर--की है, जिसे स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने वोटर लिस्ट के ‘‘शुद्धिकरण का पुण्य कार्य’’ बताया है। उनके कुनबे में शुद्धिकरण का शब्द जिस अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है, उस हिसाब से देखें, तो इरादा समझ में आ जाता है। एसआइआर के नाम पर जिन्हें मतदान के अधिकार से वंचित किया जा रहा है, उनमें बहुतायत में वे हैं, जो सामाजिक रूप से उन श्रेणियों में आते हैं, जिन्हें संघ समानता का हक़दार मानना तो दूर रहा, नागरिकता का अधिकार भी नहीं देना चाहता है। इनमें धार्मिक अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, पिछड़े और गरीब ही हैं, जिनके नाम ‘शुद्ध’ की गयी सूची से बाहर रह जायेंगे। किसी ने सही कहा है कि एसआइआर चुनाव आयोग द्वारा किया जा रहा रक्तहीन नरसंहार है।
इसी कड़ी में देश के सर्वोच्च न्यायालय का एक ईसाई सैनिक अधिकारी की बर्खास्तगी को ‘सही और जायज’ ठहराने का चौंकाने वाला फैसला आता है। इस ईसाई धार्मिक पृष्ठभूमि से आने वाले अधिकारी ने मन्दिर के गर्भगृह में होने वाले एक धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होने से यह कहकर इंकार कर दिया था कि यह उसकी धार्मिक मान्यता की संगति में नहीं है।
कायदे से तो सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों को पूछना चाहिए था कि किसी मंदिर में पूजा-पाठ को सेना के काम-काज का अनिवार्य हिस्सा बनाने का आग्रह क्यों किया जा रहा है? मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे में जाकर पूजा, इबादत, प्रार्थना या अरदास करना सेना का जरूरी काम नहीं है। उसके अधिकारी निजी तौर पर जहां चाहें, वहां जाएं। यह भी कि किस धर्म को मानना है, नहीं मानना है, यह तय करना व्यक्ति का बुनियादी अधिकार है। मगर बजाय ऐसा करने के सर्वोच्च न्यायालय के नए मुख्य न्यायाधीश की खंडपीठ ने इसे ‘सैनिक अनुशासन’ से जोडक़र संबंधित सैन्य अधिकारी की बर्खास्तगी को ही उचित ठहरा दिया।
यह चिंताजनक परिपाटी को जन्म देने वाला न्यायालयी निर्णय है -- जिसका कितना दुरुपयोग किया जाएगा, यह समझा जा सकता है। संयोग से यह निर्णय उन मुख्य न्यायाधीश ने सुनाया है, जो बताते हैं कि वे हरियाणा के हिसार के स्कूल में पढ़े हैं। उसी हरियाणा में, जहां कुछ महीनों पहले पुलिस के एक आला अधिकारी ने इसलिए आत्महत्या कर ली थी, क्योंकि दलित होने के चलते उसे उसी के द्वारा बनाये गए मंदिर में घुसने के चक्कर में लगातार, भयानक प्रताडऩा झेलनी पड़ी थी। उसे इंसाफ आज तक नहीं मिला।
इस गहरे होते कुहासे के बीच ऐसी ही एक खबर दादरी में निरपराध लिंच कर दिए गए अखलाक के हत्यारों पर लगे सारे आरोप वापस लिए जाने की आयी है। योगी सरकार ने बिना कोई कारण बताये इन हत्यारों को दोषमुक्त घोषित कर के सिर्फ इन अपराधियों को ही राहत नहीं दी है--बिना हिन्दू राष्ट्र की घोषणा किये उस दिशा में बढऩे और भविष्य में इस तरह की हिंसा को अभयदान देने का भी संकेत दिया है।
संघ की स्थापना के शताब्दी वर्ष में एक के बाद एक धड़ाधड़ घट रही इन घटनाओं से साफ़ हो जाता है कि कुनबा कितनी हड़बड़ी में है। इन सब पर कारपोरेट और उसके मीडिया की ख़ामोशी, अब उनकी सहमति से होते हुए संलग्नता तक पहुंच चुकी है। यह सचमुच में भारत के इतिहास के प्रतिकूल और एक देश के रूप में उसकी अवधारणा के खिलाफ है। जनता के बड़े हिस्से में इसकी संक्रामकता इस चिंता को और बढ़ा देती है। इस जहर को ज्यादा गहरे तक फैलने देने की मोहलत कई पीढिय़ों के लिए घातक हो सकती है।
संविधान निर्माता डॉ0 भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि ‘‘अगर इस देश में हिंदू राज एक वास्तविकता बन जाता है, तो यह निस्संदेह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी और एक खौफनाक मुसीबत होगी, क्योंकि हिंदू राष्ट्र का सपना आज़ादी, बराबरी और भाईचारे के खिलाफ है, और यह लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों से मेल नहीं खाता है -- हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’’
अच्छी बात है कि इस सबके बावजूद देश के मेहनतकश अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं। इसी 26 नवम्बर को देश भर में हुई बड़ी-बड़ी लामबंदियां इसका उदाहरण हैं। समाज के अन्य जागरूक हिस्से भी खतरों को समझ रहे हैं। मगर सिर्फ इतना काफी नहीं है--जिन्दगी को बेहतर बनाने की लड़ाई, समाज को बेहतर बनाने की लड़ाई से अलग रखकर नहीं जीती जा सकती। लोकतंत्र, संविधान, समानता और मनुष्यता की हिफाजत धर्मनिरपेक्षता, भाईचारे और बहनापे के अहसास को बचा के, हर तरह के शोषण के खिलाफ सजग रुख अपना कर ही की जा सकती है।