“झुकना कमजोरी नहीं, विनम्रता और आत्मबल का प्रतीक है“
समाज में अक्सर यह धारणा बनाई जाती है कि जो झुकता है, वह कमजोर होता है। लेकिन क्या सच में ऐसा है?
यदि झुकना कमजोरी का प्रतीक होता, तो भगवान राम समुद्र से रास्ता मांगने के लिए तीन दिन तक प्रार्थना नहीं करते।
यदि झुकना शर्म की बात होती, तो श्रीकृष्ण शांति प्रस्ताव लेकर दुर्योधन के दरबार में नहीं जाते।
यदि झुकने से सम्मान कम होता, तो छत्रपति शिवाजी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए औरंगजेब के दरबार में नीति का परिचय नहीं देते।
झुकना कमजोरी नहीं, बल्कि आत्मबल और धैर्य की पराकाष्ठा है।
लेकिन जब कोई विनम्रता को कायरता समझ ले और उसका अनुचित लाभ उठाने लगे, तो फिर झुकना नहीं, खड़े होना ही धर्म बन जाता है।
आज सत्ता ने अपनी भूल को स्वीकारने की बजाय अहंकार को ढाल बना लिया है। उन्हें लगता है कि अगर वे एक बार मान लेंगे कि गलती हो गई, तो उनकी प्रतिष्ठा कम हो जाएगी।
लेकिन सच्चा नेतृत्व वही होता है जो अपनी भूल को स्वीकार कर उसे सुधारने की शक्ति रखे।
शुभम और उनके जैसे सत्यपथी लोग यह समझते हैं कि समय-समय पर झुकना भी आवश्यक है, लेकिन अन्याय के सामने नहीं।
हमारे संस्कार हमें झुकना सिखाते हैं, लेकिन सिर्फ उसी के आगे जो झुकने योग्य हो। अन्याय के आगे झुकना आत्मसम्मान का अपमान है।
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