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सोच अपनी-अपनी : टूटी-चप्पल का रहस्य...

आपकी कलम Published by: paliwalwani.com Updated Sat, 29 May 2021 01:39 AM
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पता नहीं ये सामने वाला सेठ हफ्ते में 3-4 बार अपनी चप्पल कैसे तोड़ आता है ?“

मोची बुदबुदाया, नजर सामने की बड़ी किराना दूकान पर बैठे मोटे सेठ पर थी. हर बार जब उस मोची के पास कोई काम ना होता तो उस सेठ का नौकर सेठ की टूटी चप्पल बनाने को दे जाता. मोची अपनी पूरी लगन से वो चप्पल सी देता की अब तो 2-3 महीने नहीं टूटने वाली. सेठ का नौकर आता और बिना मोलभाव किये पैसे देकर उस मोची से चप्पल ले जाता. पर 2-3 दिन बाद फिर वही चप्पल टूटी हुई उस मोची के पास पहुंच जाती. आज फिर सुबह हुई, फिर सूरज निकला. सेठ का नौकर दूकान की झाड़ू लगा रहा था. और सेठ... अपनी चप्पल तोड़ने में लगा था, पूरी मश्शकत के बाद जब चप्पल न टूटी तो उसने नौकर को आवाज लगाई. “अरे रामधन इसका कुछ कर, ये मंगू भी पता नहीं कौनसे धागे से चप्पल सिता है, टूटती ही नहीं.“ रामधन आज सारी गांठे खोल लेना चाहता था “सेठ जी मुझे तो आपका ये हर बार का नाटक समझ में नहीं आता. खुद ही चप्पल तोड़ते हो फिर खुद ही जुडवाने के लिए उस मंगू के पास भेज देते हो.“ सेठ को चप्पल तोड़ने में सफलता मिल चुकी थी. उसने टूटी चप्पल रामधन को थमाई और रहस्य की परते खोली... “देख रामधन जिस दिन मंगू के पास कोई ग्राहक नहीं आता. उसदिन ही मैं अपनी चप्पल तोड़ता हूं... क्यों की मुझे पता है... मंगू गरीब है... पर स्वाभिमानी है, मेरे इस नाटक से अगर उसका स्वाभिमान और मेरी मदद दोनों शर्मिंदा होने से बच जाते है तो क्या बुरा है.“

आसमान साफ था पर रामधन की आँखों के बादल बरसने को बेक़रार थे. इसलिए कहते है कि मदद करके दिखावा मत करों...आपकी मदद से शायद उसे चोट पहुंचती हो...वो तुम्हें पता भी ना चले...तो ऐसी मदद करने से अच्छा है कि...मदद की ही ना जाए... मदद करना है तो ऐसी कीजिए एक हाथ से दे तो दुसरे हाथ को पता भी ना चले....।

● पालीवाल वाणी मीडिया नेटवर्क...✍️

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