बुद्ध शांति का प्रतीक, आतंक नहीं : राष्ट्रवादी आत्मरक्षा बनाम इस्लामी कट्टरता - रविंद्र आर्य
लेखक : रविंद्र आर्य (भारत)
इस श्लोक में निहित संदेश अभूतपूर्व है: जब धर्म, संस्कृति और जीवन पर आघात हो, तब लक्ष्य केवल आत्मरक्षा नहीं, बल्कि धर्मरक्षा भी होती है। भगवद्गीता का यह सिद्धांत, त्रिपिटक में संघ की रक्षा का आग्रह और जैनाचार्य सूर्यसागर महाराज की उद्घोषणा—सब एक स्वर में कहते हैं कि जब अस्तित्व पर संकट हो, सामूहिक आत्मरक्षा परम धर्म बन जाती है।
आज जब वैश्विक मीडिया ‘आत्मरक्षा’ को ‘आतंक’ बता रहा है, तब हमें स्मरण करना चाहिए कि यह सनातन सत्य ही हमारी वैचारिक ढाल है।
2013 में Time Magazine ने म्यांमार के राष्ट्रवादी बौद्ध भिक्षु अशीन विराथु को अपने कवर पर “The Face of Buddhist Terror” के रूप में प्रस्तुत किया। इस एक निर्णय ने स्पष्ट कर दिया कि वैश्विक मीडिया इस्लामी कट्टरता के विरुद्ध उठने वाली प्रत्येक आवाज़ को ‘उग्र’, ‘घृणास्पद’, या ‘आतंकी’ ठहराने में संलग्न है।
बुद्ध, जिनकी केंद्रीय शिक्षाएँ अहिंसा, करुणा और संयम पर आधारित हैं, उनके अनुयायियों को विश्व स्तर पर आतंकवादी घोषित करना केवल एक पूर्वाग्रहपूर्ण अभियान नहीं, बल्कि नैरेटिव कंट्रोल का औजार है, जिससे इस्लामी कट्टरता के खिलाफ एकत्रित होने वालों की वैध सुरक्षा को कलंकित किया जा रहा है।
969 आंदोलन, जिसका नेतृत्व राष्ट्वादी अशीन विराथु ने किया, धर्मयुद्ध नहीं—सांस्कृतिक आत्मरक्षा की पहल थी। इस आंदोलन में:
जब म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों द्वारा हिंसा, अवैध घुसपैठ, और धर्मांतरण की घटनाएँ बढ़ीं, तब विराथु ने चेताया कि यदि बौद्ध महिलाएँ यौन हिंसा व धर्मांतरण की शिकार होती रहीं, तो देश की सांस्कृतिक जड़ें उखड़ जाएँगी। 969 आंदोलन” महिलाओं, मंदिरों और संस्कृति की रक्षा का संस्कृतिक अवतार था, न कि किसी सैन्य संघर्ष का।
इस्लामी कट्टरता आज केवल एक धार्मिक चरमपंथ नहीं रह गई, बल्कि राजनीतिक हथियार बन चुकी है, जिसका स्वरूप कई तरीकों से सामने आता है:
इन सब घटनाओं के बाद भी, जब कोई देश या व्यक्ति आत्मरक्षा करता है—उसे ‘इस्लामोफोबिया’ का लेबल दे दिया जाता है, जिससे कट्टरपंथी हिंसा का असली चेहरा धुंधला पड़ जाता है।
1. क्या हम कुछ आतंकी समूहों की हिंसा की आलोचना करते हैं, तो हम धर्म से नफ़रत करते हैं?
2. क्या सीमाओं की रक्षा करना मानवाधिकारों का उल्लंघन है?
इन प्रश्नों के उत्तर में ‘टाइम’, ‘बीबीसी’, ‘अल जज़ीरा’ जैसे मंच लगातार नकारात्मक पहलू को उजागर करते हैं, लेकिन कट्टरपंथियों की हिंसा पर मौन रहते हैं—यह दोहरे मापदंड का प्रमाण है।
आचार्य विधा सागर, स्वामी रामदेव समेत कई धर्मगुरुओं ने बार-बार चेताया कि कट्टरपंथी मानसिकता हमारे समाज की सहिष्णुता और एकता के लिए सीधा खतरा है। जब संत बोलते हैं, तब उस पर राजनीति का लेबल क्यों चिपकाया जाता है?
इनसे स्पष्ट होता है कि यह धार्मिक संघर्ष नहीं, बल्कि मानवता बनाम कट्टरता का युद्ध है। बुद्ध का धम्मयुद्ध: युद्ध भी शांति के लिए आवश्यक लोग मानते हैं कि बौद्ध धर्म संघर्ष से दूर है, पर यह विचार आंशिकतः अधूरा है। बुद्ध स्वयं क्षत्रिय थे। उन्होंने अनचाहे संघर्ष को न तो बढ़ावा दिया, पर अन्याय की अनदेखी नहीं सीखी।
गीता 4.8 :
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥"
यह श्लोक केवल अवतार का उद्घोष नहीं, बल्कि हर राष्ट्र और धर्म की संरक्षणशील चेतना है।
फ्रा अचान विटेसवाचिरानन: बौद्ध धर्म का वर्तमान स्वरूप
थाईलैंड के वरिष्ठ भिक्षु फ्रा अचान विटेसवाचिरानन (वट थाई कुशीनगर) कहते हैं:-
बुद्ध के राष्ट्रवादी अनुयायी को 'आतंक' कहना केवल एक भ्रामक विमर्श नहीं, बल्कि वैश्विक शांति के लिए खतरे का संकेत है।
"बौद्ध भिक्षु जहाँ भी हैं, वहाँ सेवा, चिकित्सा, शिक्षा और पर्यावरण जीव की रक्षा में लगे हैं — आतंक से उनका कोई संबंध नहीं।"
वे जोड़ते हैं : "यदि बुद्ध आज होते, तो वे अस्पताल बनाते, भूखों को भोजन देते, और बच्चों को पढ़ाते।" इन शब्दों में स्पष्ट है कि बौद्ध आत्मरक्षा का स्वरूप सेवा व संरक्षण है, न कि हिंसा।
आज हम शब्दों, विचारों और दृढ़ नीतियों से युद्ध कर रहे हैं—जहाँ कट्टरपंथी हिंसा को ‘रक्षात्मक’ बताया जाता है और रक्षात्मक आत्मरक्षा को ‘अपराध’ ठहराया जाता है।
भारत, जिसके पास गीता का संदेश, बुद्ध की धम्मदृष्टि, और संतों की चेतावनी है, उसे इस वैश्विक प्रोपगेंडा का प्रत्युत्तर वैचारिक दृढ़ता, स्पष्ट भाषण और सशक्त नीति द्वारा देना चाहिए।
यदि सत्य पर हमला हो, तो शांत रहना भी पाप है।
लेखक : रविंद्र आर्य