मखाने की खेती किसानों के लिए वरदान साबित हो रही है. जिन किसानों की ज़मीन बंजर होने और जलभराव की वजह से बेकार पड़ी थी, और किसान दाने-दाने को मोहताज हो गए थे। अब वही किसान अपनी बेकार पड़ी ज़मीन में मखाने की खेती कर ख़ुशहाल ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं। इस काम में उनके परिवार की महिलाएं भी कंधे से कंधा मिलाकर तरक्क़ी की राह पर आगे बढ़ रही हैं। बहुत सी महिलाओं ने ख़ुद ही तालाब पट्टे पर लेकर मखाने की खेती शुरू कर दी है। उन्हें मखाने की बिक्री के लिए बाज़ार भी जाना नहीं पड़ता। कारोबारी ख़ुद उनके पास से उपज ले जाते हैं।
ये सब किसानों की लगन और कड़ी मेहनत से ही मुमकिन हो पाया है। ग़ौरतलब है कि देश में तक़रीबन 20 हज़ार हेक्टेयर क्षेत्र में मखाने की खेती होती है। कुल उत्पादन में से 80 फ़ीसद अकेले बिहार में होता है। बिहार में भी सबसे ज़्यादा मखाने का उत्पादन मिथिलांचल में होता है। इसके अलावा पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा, जम्मू-कश्मीर, मणीपुर, मध्यप्रदेश, राजस्थान और नेपाल के तराई वाले इलाक़ों में भी मखाने की खेती होती है। अब उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद के किसान भी मखाने की खेती कर रहे हैं। इसके लिए दरभंगा से बीज लाए जाते हैं। मिथिलांचल में छोटे-बड़े तालाब सालभर मखानों की फ़सल से गुलज़ार रहते हैं। मखाना की उत्पत्ति दक्षिण पूर्व एशिया चीन से हुई है। भारत के अलावा चीन, जापान और कोरिया में भी इसकी खेती होती है। मखाने की खेती की ख़ासियत यह है कि इसमें लागत ज़्यादा नहीं आती।
खेती के लिए तालाब और पानी की ज़रूरत होती है। ज़्यादा गहरे तालाब की ज़रूरत भी नहीं होती। बस दो से तीन फ़ीट गहरा तालाब ही इसके लिए काफ़ी रहता है। जिन इलाक़ों में अच्छी बारिश होती है और पानी के संसाधन मौजूद हैं। वहां इसकी खेती ख़ूब फलती-फूलती है। यूं तो मखाने की खेती दिसंबर से जुलाई तक ही होती है। लेकिन अब कृषि की नित-नई तकनीकों और उन्नत क़िस्म के बीजों की बदौलत किसान साल में मखाने की दो फ़सलें भी ले रहे हैं। यह नक़दी फ़सल है, जो तक़रीबन पांच माह में तैयार हो जाती है और यह बेकार पड़ी ज़मीन और सालों भर जलमग्न रहने वाली ज़मीन में उगाया जा सकता हैं। मखाने की खेती ठहरे हुए पानी में यानी तालाबों और जलाशयों में की जाती है। एक हेक्टेयर तालाब में 80 किलो बीज बोये जाते हैं। मखाने की पहचान पानी की सतह पर फैले गोल कटीले पत्ते से की जाती है। मखाने की बुआई दिसंबर-जनवरी तक की जाती है। मखाने की बुआई से पहले तालाब की सफ़ाई की जाती है। पानी में से जलकुंभी अन्य जलीय घास को निकाल दिया जाता है। ताकि मखाने की फ़सल इससे प्रभावित न हो. अप्रैल माह तक तालाब कटीले पत्तों से भर जाता है।
इसके बाद मई में इसमें नीले, जामुनी, लाल और गुलाबी रंग के फूल खिलने लगते हैं। जिन्हें नीलकमल कहा जाता है, फूल दो-चार दिन में पानी में चले जाते हैं, इस बीच पौधों में बीज बनते रहते हैं। जुलाई माह तक इसमें मखाने लग जाते हैं, हर पौधे में 10 से 20 फल लगते हैं, हर फल में तक़रीबन 20 बीज होते हैं, दो-तीन दिन में फल पानी की सतह पर तैरते रहते हैं और फिर तालाब की तलहटी में बैठ जाते हैं। फल कांटेदार होते हैं और एक-दो महीने का वक़्त कांटो को गलने में लग जाता है। सितंबर-अक्टूबर महीने में किसान पानी की निचली सतह से इन्हें इकट्ठा करते हैं और बांस की छपटियों से बने गांज की मदद से इन्हें बाहर निकालते हैं।
फिर इनकी प्रोसेसिंग का काम शुरू किया जाता है। पहले बीजों को रगड़ कर इनका ख़ोल उतार दिया जाता है, इसके बाद इन्हें भूना जाता है और भूनने के बाद लोहे की थापी से फोड़ कर मखाना निकाला जाता है। यह बहुत मेहनत का काम है, अकसर किसान के परिवार की महिलाएं ही ये सारा काम करती हैं, पहले किसान मखाने की खेती को घाटे की खेती मानते थे। लेकिन जब उन्होंने कुछ किसानों को इसकी खेती से मालामाल होते देखा तो उनकी सोच में भी बदलाव आया। जो तालाब पहले बेकार पड़े रहते थे, अब फिर उनमें मखाने की खेती की जाने लगी, इतना ही नहीं, किसानों ने नये तालाब भी खुदवाये और खेती शुरू की। बिहार के दरभंगा ज़िले के गांव मनीगाछी के नुनु झा अपने तालाब में मखाने की खेती करते हैं, इससे पहले वह पट्टे पर तालाब लेकर उसमें मखाना उगाते थे। केदारनाथ झा ने 70 तालाब पट्टे पर लिए थे वह एक हेक्टेयर के तालाब से एक हज़ार से डेढ़ हज़ार किलो मखाने का उत्पादन कर रहे हैं, उनकी देखादेखी उनके गांव व आसपास के अन्य गांवों के किसानों ने भी मखाने की खेती शुरू कर दी। मधुबनी, सहरसा, सुपौल अररिया, कटिहार और पूर्णिया में भी हज़ारों किसान मखाने की खेती कर अच्छी आमदनी हासिल कर रहे हैं।
यहां मखाने का उत्पादन 400 किलोग्राम प्रति एकड़ हो गया है। ख़ास बात यह भी है कि किसान अब बिना तालाब के भी अपने खेतों में मखाने की खेती कर रहे हैं। बिहार के पूर्णिया ज़िले ले किसानों ने खेतों में ही मेड़ बनाकर उसमें पानी जमा किया और मखाने की खेती शुरू कर दी। सरवर, नौरेज़, अमरजीत और रंजीत आदि किसानों का कहना है कि गर्मी के मौसम में खेतों में पानी इकट्ठा रखने के लिए उन्हें काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है। लेकिन उन्हें फ़ायदा भी ख़ूब हो रहा है, बरसात होने पर उनके खेत में बहत सा पानी जमा हो जाता है, मखाने को मेवा में शुमार किया जाता है। दवाओं, व्यंजनों और पूजा-पाठ में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है। अरब और यूरोपीय देशों में भी इसकी ख़ासी मांग है। दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता के बाज़ार मे मखाने 400 रुपये किलोग्राम तक बिक रहे हैं। सरकार भी मखाने की खेती को प्रोत्साहित कर रही है।
पहले पानी वाली ज़मीन सिर्फ़ 11 महीने के लिए ही पट्टे पर दी जाती थी। लेकिन अब सात साल के लिए पट्टे पर दी जाने लगी है। मखाने की ख़रीद के लिए विभिन्न शहरों में केंद्र भी खोले गए हैं, जिनमें किसानों को मखाने की वाजिब क़ीमत मिल रही है। ख़रीद एजेंसियां किसानों को उनके उत्पाद का वक़्त पर भुगतान भी कर रही हैं, बैंक भी अब मखाना उत्पादकों को क़र्ज़ दे रहे हैं। इससे पहले किसानों को अपनी फ़सल औने-पौने दाम में बिचौलियों को बेचनी पड़ती थी। पटना के केंद्रीय आलू अनुसंधान केंद्र में मखाने की प्रोसेसिंग को व्यवस्था की गई है. इसके अलावा निजी स्तर पर कई भी इस तरह की कोशिशें की जा रही हैं। एक कारोबारी सत्यजीत ने 70 करोड़ की लागत से पटना में प्रोसेसिंग यूनिट लगाई है। उनका बिहार के आठ ज़िलों के चार हज़ार से भी ज़्यादा किसानों से संपर्क है। उन्होंने ‘सुधा शक्ति उद्योग‘ और ‘खेत से बाज़ार‘ तक केंद्र बना रखे हैं। सरकार बेकार और अनुपयोगी ज़मीन पर मखाने की खेती करने की योजना चला रही है, सीवान ज़िले में एक बड़ा भू-भाग सालों भर जलजमाव की वजह से बेकार हो चुका है। जहां कोई कृषि कार्य नहीं हो पाता। कई किसानों की ज़्यादातर ज़मीन जलमग्न है। जिसकी वजह से वे भुखमरी के कगार पर हैं. कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबि़क ज़िले में पांच हज़ार हेक्टेयर से ज़्यादा ज़मीन बेकार पड़ी है। इस अनुपयुक्त ज़मीन पर मखाना उत्पादन के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने की योजना है।
जिससे उनकी समस्या का समाधान संभव होगा और वे आर्थिक रूप से समृद्ध होंगे। मखाना उत्पादन के साथ ही इस प्रस्तावित जगह में मछली उत्पादन भी किया जा सकता है। मखाना उत्पादन से जल कृषक को प्रति हेक्टेयर लगभग 50 से 55 हज़ार रुपये की लागत आती है। इसकी गुर्री बेचने से 45 से 50 हज़ार रुपये का मुनाफ़ा होता हैं इसके अलावा लावा बेचने पर 95 हज़ार से एक लाख रुपये प्रति हेक्टेयर का शुद्ध लाभ होता हैं। इतना ही नहीं मछली उत्पादन और मखाने की खेती एक-दूसरे से अन्योनाश्रय रूप से संबद्ध है, जो संयुक्त रूप से आय का एक बड़ा ज़रिया है।
मखाने की खेती की एक ख़ास बात यह भी है कि एक बार उत्पादन के बाद वहां दुबारा बीज डालने की ज़रूरत नहीं होती है। कृषि वैज्ञानिक मखाने की खेती को ख़ूब प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसके लिए नये उन्नत बीजों का भी इस्तेमाल किया जा रहा है कृषि वैज्ञानिक मखाने की क़िस्म सबौर मखाना-1 को बढ़ावा दे रहे हैं। पिछले साल हरदा बहादुपुर के 25 किसानों से सबौर मखाना-1 की खेती करवाई गई थी। जो कामयाब रही. वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे किसान को कम से कम 20 फ़ीसद ज़्यादा उत्पाद मिल सकता है। हरदा बहादुर के किसान मोहम्मद ख़लील के मुताबिक़ कृषि वैज्ञानिकों के कहने पर उन्होंने दो एकड़ में सबौर मखाना-1 लगाया है। इसके लिए उनको 12 किलो बीज दिया गया था। पहले जो मखाने लगाते उसके फल एक समान नहीं होते थे। लेकिन इस बीज से जो फल बने हैं वे सभी एक समान दिख रहे हैं। लगाने में लागत भी कम है कृषि विभाग द्वारा समय-समय पर प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन कर किसानों को मखाने की खेती की पूरी जानकारी दी जाती है।
कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि एक बार मखाने का पौधा लगा देने से हर साल फ़सल की मिलती रहती है। लेकिन पहली फ़सल के बाद उसकी उत्पादन क्षमता घटने लगती है़। तालाब के पानी का स्तर भी तीन से चार फ़ीट रहना चाहिए। फ़सल में कीड़े न लगें इसलिए थोड़े-थोड़े वक़्त पर इन फ़सल की जांच करते रहना चाहिए। उन्नत तरीक़े से पौधे लगाई जा सकती है, जैसे धान के बिचड़े होते हैं। ठीक उसी तरह मखाने की पौध तैयार की जाती है। बहुत से किसान इसकी पौध तैयार करके बेचते हैं। बहरहाल, मखाने की खेती फ़ायदे की खेती है जिनके पास बेकार ज़मीन हैं। वे मखाने की खेती करके अच्छी आमदनी हासिल कर सकते हैं इसलिए इसे आज़माएं ज़रूर।
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