उत्तर-टैगोर दौर में अपने समय के अवांगार्द आधुनिकतावादियों में से एक सुधीन्द्रनाथ दत्ता ने 1928 में अपनी कविता 'एट अ सिनेमा' (एक सिनेमा में) में एक फिल्म देखने के अनुभव को ऐसे दर्ज किया : "शफ्फाक पर्दे पर/ गुजरती है, जीवन की दो-आयामी नकल।/ छाया की व्यर्थ छाया, क्षणभंगुर एक पल की स्मृति / उतारती नकल, यथार्थ की.../ शास्त्रीय संगति, दूर देश-निकाला दे दिया जाता है सच को/ उन क्रांतिकारी छवियों से। हल्की इच्छाएं, एक के बाद एक/ बेकाबू मैदान में बेलगाम चीखती भटकती/ डीग हांकती।" (बांग्ला से अंग्रेज़ी अनुवाद स्वयं लेखक द्वारा)
समय की लहरें अगले पच्चीस वर्षों में मुख्यधारा की बंगाली बौद्धिकता को उन भावनाओं से बहुत दूर ले आई। जैसा कि ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के संस्थापक सज्जाद ज़हीर और मुल्क राज आनंद याद करते हैं कि भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में ताज़ा खून संचारित करने की गरज से ही 1935 में लंदन में इसकी स्थापना की गयी थी। 'भारत में हमारे युग के सामाजिक यथार्थ की एक प्रामाणिक अभिव्यक्ति बन सकने के लिए नाटक, संगीत, नृत्य और अन्य कलाओं को विकसित करने के लिए...' 1943 में ‘इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन’ (इप्टा) का जन्म हुआ। कलाओं में एक यथार्थवादी प्रामाणिकता की इसी आकांक्षा के साथ ऋत्विक कुमार घटक (4 नवंबर 1925–6 फरवरी 1976) ने सांस्कृतिक मोर्चे पर एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता बतौर अपनी यात्रा शुरू की। कभी-कभार प्रकाशित कुछ लघु कथाओं से इतर उनकी शुरुआत रंग-मंच के इर्द-गिर्द हुई थी। बतौर एक नाटककार, अभिनेता और निर्देशक। 1943 से 1953 के बीच घटक ने टैगोर के अनेक नाटकों (अचलायतन, डाकघर, नॉटीर पूजा) के मंचन में हिस्सा लिया।
ठीक-ठीक कह सकना मुश्किल है कि इप्टा या उसके सदस्यों ने कब सिनेमा में प्रवेश किया। हालांकि इसकी पहली फीचर फिल्म 'धरती के लाल' 1946 में प्रदर्शित हुई थी, जिसका निर्देशन ख्वाजा अहमद अब्बास ने किया था। पटकथा लिखने में बिजॉन भट्टाचार्य ने योगदान दिया था, जबकि शंभु मित्र और तृप्ति मित्र ने अभिनय किया था। भारत और खास कर बंगाल, यानी आजादी के बाद के पश्चिम-बंगाल, में प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलनों पर इसका असर होना ही था। बंगाल में प्रगतिशील साहित्यिक हस्तियों के सिनेमा में जाने का इतिहास रहा था। 1930 के मध्य में काजी नज़रूल इस्लाम ने फिल्मों में अभिनय शुरू किया। कल्लोल युग के शैलजानंद मुखोपाध्याय और प्रेमेंद्र मित्र 1940 के दशक की शुरुआत में सिनेमा-क्षेत्र में आए।
1940 के दशक के अंत तक इप्टा के अनेक सदस्य विभिन्न भूमिकाओं में फिल्मों से जुड़ने लगे थे। 'जागते रहो / एक दिन रात्रे' (1956) में निर्देशन के दुर्लभ प्रयास सहित शंभु मित्र ने बाद में कुछ फिल्मों में अभिनय किया। बिजॉन भट्टाचार्य 1946 से स्क्रिप्ट लिखने और अभिनय करने लगे, 1950 में उत्पल दत्त ने 'माइकल मधुसूदन' के साथ अपना फिल्मी जीवन शुरू किया और अंत तक आते-आते दो सौ फिल्मों में अभिनय के अलावा कुछ फिल्मों का निर्देशन भी किया। कहा जा सकता है कि बंगाल के साहित्यिक-सांस्कृतिक हलकों, मसलन कल्लोल समूह या इप्टा के सदस्यों की बढ़ती उपस्थिति ने फिल्मों में एक निर्णायक मोड़ ला दिया।
जहां सिनेमा अब 'वास्तविकता की नकल करती छाया की छाया मात्र ' न रह कर सांसारिक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाला एक जोरदार साहसिक रूप बन गया था। नेमाई घोष की 'छिन्नमूल' (1950) को याद किया जा सकता है, जो बंगाली फिल्मों में सामाजिक यथार्थवाद की ताज़ा हवा लेकर आई। प्रावदा में जिसकी प्रशंसा पोडवकिन ने की थी। ऐसे ऐतिहासिक और फलते-फूलते सांस्कृतिक वातावरण से ऋत्विक घटक ने फिल्मी-क्षेत्र में प्रवेश किया, जो तब तक इप्टा में एक ख्यात सांस्कृतिक कार्यकर्ता थे और जिन पर 1951 में इप्टा की बंगाल शाखा का केंद्रीय सैद्धांतिक दस्तावेज़ तैयार करने का दायित्व रहा था।
'बेदिनी' के लिए घटक को निर्देशन की पहली जिम्मेदारी मिली, जो ताराशंकर बंद्योपाध्याय की एक लघुकथा पर आधारित थी, जिसमें उन्होंने निर्मल डे की जगह ली थी। 1951 में शुरू हुई इस फिल्म की शूटिंग लेकिन पूरी न हो सकी। उनकी बनाई पहली पूरी फिल्म 'नागरिक' का फिल्मांकन और संपादन 1952-53 में हुआ। मगर, वह 1977 में सिनेमाघरों तक पहुंच सकी। अपने निर्माण के पच्चीस बरसों बाद, जब तक कि निर्देशक ही इस दुनिया से जा चुके थे। इसमें वर्ग और लिंग आधारित शहरी जीवन का एक लगभग रोमानी चित्रण था।
यह फिल्म बदनसीबी के अकल्पनीय झोकों से निपटने की कोशिश करते, अपने पैतृक घरों से उखड़े, दो परिवारों के बारे में है। जिसकी शुरुआत में ही नदी किनारे की एक बस्ती की पृष्ठभूमि में एक वाचक एक आदर्श और एक आदर्शीकृत नागरिक की तलाश की बात करता है। उसी बात का रानी रॉय का अनुवाद 'मैं उसे पहचानता हूं, मैंने उसे पहले देखा है। यहां खड़ा है महान शहर। जहां एक अडिग लौह-संरचना तले नदी चुपचाप बहती है, जिसके किनारे-किनारे एक गाथा लुढ़कती है, आंसुओं और मुस्कानों की।
फिल्म हालांकि विद्रोही वर्ग-संघर्ष के जरिये रोज़मर्रा के जीवन से मुक्ति चाहते एक आदर्श नागरिक की रोमांटिक तलाश को चित्रित करते हुए आधुनिकतावादी संवेदनशील तत्वों को दर्शाती है, ऐसा बंगाली फिल्मों में अक्सर नहीं हुआ था। इसी दौरान, गोर्की के 'लोअर डेप्थ' पर आधारित एक नाटक 'निचेर महाल’' का अभ्यास करते हुए घटक ने प्रचलित समझ और प्रथाओं के बारे में अपना असंतोष जताते हुए एक और सैद्धांतिक दस्तावेज: 'ऑन द कल्चरल फ्रंट' (सांस्कृतिक-मोर्चे पर) लिख कर 1954 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को सौंपा। उक्त दस्तावेज़ को पार्टी से ज्यादा तवज्जोह नहीं मिली।
इसी बीच न्यूयॉर्क के ‘म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट’ में सत्यजित राय की 'पाथेर पांचाली' (1955) का वर्ल्ड-प्रीमियर हुआ, जिसने भारतीय फिल्मों की पृष्ठभूमि और उनकी वैश्विक स्वीकृति को निर्णायक तौर पर बदल डाला। 1957 में सिनेमाघरों में लगी घटक की पहली फिल्म‘अजांत्रिक' (द अनमैकेनिकल) एक ड्राइवर-मैकेनिक का रोजी-रोटी देने वाली अपनी कार के साथ रिश्ते के ‘मानवीकरण’ की पड़ताल करती है। दो साल बाद घटक 'बारी थेके पालिये' (1959) बनाते हैं। एक बाल-फिल्म, जो एक नौजवान के शहर के प्रति रोमांच और असंतोष पर आधारित है।
कहा जा सकता है कि घटक को अपना केन्द्रीय विषय कुछ देर से मिला। जिसके लिए वे सर्वाधिक याद किए जाते हैं, विभाजन और जबरन पलायन का वह मसला उनकी तीसरी या चौथी फिल्म 'मेघे ढाका तारा' (1960) में दिखाई देता है। मगर, एक बार जब यह उन्हें यह मिल जाता है, तो घटक उसे एक त्रयी में बदल देते हैं, जो सिर्फ विषयगत समानता से जुड़ी हैं। जहां 'मेघे ढाका तारा' हताश आर्थिक कष्टों के बीच संघर्षरत एक शरणार्थी परिवार की विपदाओं का वर्णन करती है, 'कोमल गांधार' (1961) सांस्कृतिक सक्रियता के जरिये एक पुनर्परिभाषित और साझा मातृभूमि के अस्तित्व की संभावनाएं तलाशती है और 'सुबर्णरेखा' (1962) जबरन विस्थापन और अलग-थलग जीवन पर कट्टर शुद्धतावाद के नैतिक परिणामों पर सवाल उठाती है।
हालांकि बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के संदर्भ में घटक ने एक बार फिर, व्यक्तिगत और कलात्मक रूप से भी, अपनी इस मूल-दुखी मातृभूमि का साक्षात्कार किया। 1971 में बांग्लादेश के उदय के वक्त घटक ने बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन, जिसके प्रति वे गहरे चिंतित थे, पर एक वृत्तचित्र बनाया -- 'दुर्बार-गति पद्मा' (1971)। तत्कालीन पूर्वी-पाकिस्तान के लोगों के लिए जबरन पलायन की बार-बार की नियति को घटक नापसंद करते थे। आजादी के आंदोलन के बेसहारा-शरणार्थियों के लिए धन जुटाने के उन्होंने बहुत प्रयास किए। बांग्लादेश के स्वतंत्र हो जाने के बाद 1971 में घटक ने नवजात राष्ट्र का जश्न मनाने के लिए अद्वैत मल्लबर्मन के एक उपन्यास पर आधारित अपनी छठी फीचर फिल्म 'तितास एकटी नॉदीर नाम' (ए रिवर कॉल्ड तितास, 1973) का निर्देशन किया। जो तत्कालीन त्रिपुरा राज्य के ब्राह्मणबाड़िया क्षेत्र में हाशिए के समुदाय मालो पर थी।
फीचर फिल्मों से इतर घटक ने उस्ताद अलाउद्दीन खान (1963), सिविल डिफेंस (1965), 'साइंटिस्ट्स ऑफ टुमॉरो' (1967), 'छाऊ डांस ऑफ पुरुलिया' (1970) आदि अनेक वृत्तचित्र भी बनाए। लेनिन की जन्म शताब्दी के अवसर पर निर्मित छोटे सी डॉक्यू-फीचर 'आमार लेनिन' (मेरा लेनिन, 1970) उस समय भारत में प्रतिबंधित कर दी गयी थी, लेकिन सोवियत-रूस में उसे पुरस्कार और प्रशंसा मिली। 1965-66 में पुणे के ‘फिल्म और टेलीविजन संस्थान’ में अपने संक्षिप्त अध्यापन-काल के दौरान घटक ने कुछ डिप्लोमा फिल्में भी बनाईं। जहां उन्होंने मणि कौल, कुमार शाहनी, अडूर गोपालकृष्णन और जॉन अब्राहम जैसे अपने छात्रों पर एक अमिट छाप छोड़ी।
आज बेहद सम्मानित मानी जाने वाली तमाम पूरी-अधूरी सिनेमाई परियोजनाओं से इतर घटक ने अनेक नाटकों, लघुकथाओं, निबंधों, रिपोर्ताजों और कई पत्र-पत्रिकाओं को दिए गए साक्षात्कारों की भी एक विरासत छोड़ी है। आज, किसी सामान्य उत्साही के लिए इनमें से कुछ ही कभी-कभार उपलब्ध हो पाते हैं। दृष्टा और आलोचक घटक, फिल्मकार घटक की चकाचौंध पीछे कुछ दब से गए हैं। फेलिनी की नोटबुक या पेसोलिनी के कविता-संचयन की तुलना में घटक को चाहने वालो के लिए संभवतः यह जितना बड़ा नुकसान है, उसकी कल्पना तक मुमकिन नहीं।
औपनिवेशिक उत्पीड़न के गवाह रहे ऋत्विक घटक ने खुद को उससे लड़ने और बेहद अस्थिर विश्व-व्यवस्था में उभरते एक राष्ट्र-राज्य में शोषितों की चिंताओं को आवाज देने में लगा दिया। इन सबके बीच उन्होंने किसी मीनार-शिखर से निहारते हुए कला नहीं रची, बल्कि सांसारिक लोगों के रोजमर्रा के जीवन को, उनके भयानक आघातों और छोटी-छोटी जीतों को बहुत सहानुभूति से देखा और दर्ज किया।