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पालीवालों ने झेले कई आक्रमण : पाली के पालीवाल ब्राह्मण रक्षाबंधन नहीं मनाते, 700 साल से ज्यादा पुराना है इतिहास

धर्मशास्त्र Published by: sunil paliwal-Anil Bagora Updated Sat, 09 Aug 2025 02:07 PM
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sunil paliwal-Anil Bagora

पाली. राजस्थान का एक जिला ऐसा भी है, जहां आज भी राखी नहीं मनाई जाती है. पाली के पालीवाल ब्राह्मण रक्षाबंधन नहीं मनाते हैं. बल्कि इस दिन ये लोग बलिदान दिवस मनाते हैं.

इस दिन पालीवाल अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. यह परंपरा आज से नहीं, विक्रम संवत 1348 (1291 ईं.) से अनवरत चली आ रही है. पालीवाल ब्राह्मणों के इतिहास में यह दिन त्रासदी और बलिदान का प्रतीक है. समाज के बुजुर्ग बताते हैं कि उस दिन उनके पूर्वजों ने अपने धर्म, स्वाभिमान और मातृभूमि की रक्षा के लिए जीवन आहुति दी थी. इस वजह से यह दिन राखी बांधने का नहीं, बल्कि श्रद्धा से तर्पण करने का बन गया.

पालीवालों ने झेले कई आक्रमण

एक समय था जब पाली नगर में लगभग 1.50 लाख पालीवाल ब्राह्मण परिवार रहते थे. वे न केवल आर्थिक रूप से समृद्ध थे, बल्कि सामाजिक रूप से भी संगठित थे. लेकिन उनकी समृद्धि को देखकर पहाड़ी लुटेरे और आक्रमणकारी बार-बार हमला करते थे.

पालीवालों के मुखिया जसोधर ने इन हमलों से परेशान होकर राव सीहा से सहायता मांगी. एक लाख रुपए का नजराना देकर उन्होंने रक्षा की मांग की, जिसे राव सीहा ने स्वीकार कर लिया. कई वर्षों तक पालीवालों की रक्षा करते हुए राव सीहा ने एक युद्ध में वीरगति पाई.

श्रावण पूर्णिमा के दिन बजा युद्ध का बिगुल

एक महान गाथा पालीवाल ब्राह्मण इतिहास की...

जहां एक और पूरा देश राखी के त्योहार को मनाएगा वही देश में एक पालीवाल ब्राह्मण जो उसको शोर्य दिवस के रूप में मनाकर धर्म और स्वाभिमान की लड़ाई में वीरों की भाती लड़ते हुए शहीद हुए अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

विक्रम संवत 1348 में श्रावण पूर्णिमा के दिन पालीवालों ने रक्षाबंधन की बजाय केसरिया बाना पहनकर युद्ध का बिगुल बजाया. हजारों पालीवालों ने धर्म और सम्मान की रक्षा करते हुए बलिदान दिया. कहा जाता है कि युद्ध के बाद 9 मन जनेऊ शहीदों के शरीरों से उतारी गईं और जो महिलाएं सती हुईं, उनके चूड़ियों का वजन 84 मन था.

क्रूरता की पराकाष्ठा और स्वाभिमान की परीक्षा

राव सीहा के पुत्र आस्थान ने जब गद्दी संभाली, उसी दौरान जलालुद्दीन खिलजी (फिरोजशाह द्वितीय) ने पाली पर आक्रमण कर दिया. महीनों तक युद्ध चला और जब खिलजी को जीत नहीं मिली तो उसने एक क्रूर रणनीति अपनाई. उसने गायों को मारकर पाली के एकमात्र जलस्रोत लाखोटिया तालाब में डलवा दिया. इससे न केवल धार्मिक भावना आहत हुई बल्कि जीवनदायिनी जल व्यवस्था भी दूषित हो गई.

जैसलमेर की ओर हुआ पलायन

इस क्रूर नरसंहार के बाद, बचे हुए पालीवाल ब्राह्मणों ने पाली को हमेशा के लिए त्याग दिया और जैसलमेर रियासत की ओर पलायन किया. वहां उन्होंने नई बस्तियां बसाईं, लेकिन अपने बलिदान की स्मृति को कभी नहीं भुलाया. आज भी, पालीवाल समाज के लोग हर वर्ष रक्षा बंधन पर तालाब में तर्पण करते हैं, अपने पूर्वजों को स्मरण करते हैं और त्याग, धर्म और स्वाभिमान की उस ऐतिहासिक गाथा को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते हैं.

पालीवाल समाज द्वारा रक्षाबंधन नही मनाकर पाली के पुर्वजो की याद में पालीवाल धाम रुक्मणी मंदिर परिसर पाली-राजस्थान में पालीवाल एकता दिवस मनाया जा रहा है और पुर्वजो को श्रद्धांजलि दी जा रही है पुर्वजो के बलिदान को शत... शत... नमन...

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