पुरखों की विरासत है ये हमारा जलसा। मालवा का सबसे बड़ा उत्सव का सिरमौर यू ही नही बना हैं इंदौर। पाई पाई जोड़कर भी हम इस उत्सव को यहां तक ले आये हैं। जब हम कस्बा थे, तब से ये जज़्बा हैं। लिहाज़ा साहेब, इस सालाना उत्सव को ' भूनसारे' तक चलने देना। बप्पा की बिदाई के संग इस शहर को रतजगे की बरसो बरस की आदत हैं। उत्सव मनाकर इन्दौरी और इंदौर अलसुबह ही घर लौटता हैं। सालो साल से। एक दिन आप सब भी जाग लेना इस शहर की उत्सवधर्मिता के संग, उत्सवप्रियता के संग। कुछ न बिगड़ेगा। बल्कि अनंत चतुर्दशी की इस परंपरा में चार चांद ही लगेंगे।
साहेब, कोई हायतौबा मत करना। सालभर रहता हैं इस दिन का इंतजार, जिसमे रात दुल्हन बनती हैं और उत्सव दूल्हा। झिलमिल रोशनी के संग जब उत्सव रात को ब्याहने निकलेगा तो सितारों की इस बारात को लाखों-लाख नयन अपलक निहारेंगे। सड़क के दोनों छोर का कोई आरपार न होगा। ओटले, अटारी, चौक-चौबारे ही नही, गली मोहल्ले भी रौशनी से सरोबार होंगे। बाजे, पूंजी, बंसी, पिपाड़ी का शोर होने देना।
कुर्राटे गूंजने देना। किलकारियां होने देना। रंग में भंग न होने की चिंता जरूर पालना लेकिन रंग, बेरंग न करना। झिलमिल रोशनी के ये रंग ही तो आपाधापी के जीवन मे उमंग लाते हैं। उत्सव का ये उल्लास उत्साह से परवान चढ़ने देना। बंदोबस्त मजबूत रखना पर किसी को मजबूर न करना कि वह व्यवस्था को वर्षभर तक कोसने को लाचार हो जाये। चेहरे पर मुस्कान रखना, दिल मे अरमान रखना उत्सव को जनसामान्य के संग जीने का। इंदोरियो के दमकते-चमकते चेहरे देखना। अब यू भी कहा जीवन मे ऐसे उत्सव के अवसर आते हैं, जब लोग सपरिवार रतजगा करने सड़क पर आते हैं। 'गजट' की दुनिया मे आम आदमी के बजट के इस उल्लास को पसरने देना। थामना मत। जनसैलाब को हिलोरें मारने देना।
साहेब, ये यादें है हमारे शहर की उन जमीदोंज हो गई मिलो की, जिनकी धाक कभी सात समंदर पार तक थी। मिल तो नही लेकिन मजदूरों के इस जज़्बे की धाक अब तक कायम हैं। ये मजदूरों के पसीने से सिंचित कलाकारी की रात हैं। टूटती चिमनियों और दरकते मिल के दरों दीवार के बीच आज भी मजदूर इस परंपरा को कायम रखे हुए हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी झांकी की ये रिवायत आज भी शहर का श्रमिक क्षेत्र दिल से जीता हैं।
यक़ीन न हो तो झांकियों के निर्माण में लगें उन लोगो से पूछिए जो बेजान पुतलों में प्राण फूंकने में महीनेभर से भी ज्यादा समय से एक जैसे जुटे हैं। इतना वक्त देना की परिश्रम की इस पराकाष्ठा को दिल खोलकर प्रतिसाद मिल सके। वक्त से पहले झांकियों के कारवाँ की रवानगी में मत जुट जाना। ' दिया बत्ती' जल जाने देना। झिलमिल झांकियों की जगमगाहट ' दिन छते' किस काम की। पश्चिम में भगवान दिनकर को अस्त होने देना। फ़िर खजराना गणेश की झांकी के संग इस सालाना उत्सव का श्रीगणेश करना। चलने देना जगमग झांकियों के कारवे को मंथर गति से।
ये मजदूरों की कलाकारी के प्रदर्शन की रात है जो आज के आधुनिक दौर, एआई तकनीक के जमाने में भी अपने दम पर लाखों लाख लोगों को सड़क पर खींच लाती हैं। बेजान पुतलों को देखने भला अब कोई वक्त खर्च करता है? वह भी ' स्मार्ट सिटी' जैसे शहर में। इंदौर करता है साहेब। क्योकि हमे पुरखो की इस परंपरा को रतजगे के साथ जीकर फ़ख़्र होता है। हमारा ये गुरुर व गर्व टूटने मत देना साहेब।
साहेब, घूमने देना बनेटी को जी भरकर। बनने देना गोल घेरा। पटे की फटकार रोकना मत। लेजिम की लयबद्धता में खलल मत डालना। दिखाने देना सड़क पर करतब। महीनों की है ये मेहनत और बरसो के अभ्यास से बनती है दंड, बनेटी, पटा, लाठी, तलवार, भाले, बल्लम से सजी संवरी ये रात। ये अखाड़े है साहेब। इनका मान बनाये रखना।
इन अखाड़ों के बुजुर्ग उस्ताद-ख़लीफ़ाओं के कलफ लगे साफे की लाज़ रखना। धकियाना मत। लतियाना मत। दो घड़ी ज्यादा भी हो जाये तो कला का प्रदर्शन होने देना। सीटियां मत गुंजाना। उन ' चाय से गरम केटलियो' को भी समझाना, जो गले मे पट्टा डाल पुलिस से भी बड़ी पुलिस बन जाते हैं। मत गिनना कितने ठेले है सँग? डीजे है कि नही? कसरती बदन का जोश सड़क पर दिखने देना। लाल मिट्टी में तपे ताम्बाई बदनो को दिखाने देना अपना दमखम। दंड-पट पर खम ठुकने देना।
ये ही अखाड़े तो हमारे देश की, इस सनातन की आन-बान-शान हैं। इनकी कला को देखने देना उस पीढ़ी को, जिसके लिए ' जिम' में कृतिम तोर तरीको से बदन फुलाने को ही पहलवानी मान-जान लिया गया हैं। ये अखाड़े का दम हैं, पसीने के पुतले बन जाते है, तब होता है ऐसा बदन तैयार की एक ढाक में सब चारो खाने चित्त। चित लगने देना इन अखाड़ों से, आगे बढ़ाने की चिंता मत करना।
साहेब, ' भूनसारे तक चलने देना मालवा के इस उत्सव को। कोई हायतौबा मत करना। बोलने देना हमे दूसरे दिन कि सुबह 7 बजे तक तो आख़री झांकी सीतलामाता बाज़ार तक ही पहुँची थी। इस देर सबेर से हम दुःखी नही होते। बल्कि खुश होते है कि देखा सुबह हो गई झांकियों को देखने में। आप चिंता न करना। देर होने पर आज तक किसी को सजा नही मिली। बल्कि लोग एक नींद निकालकर बाल बच्चो को सुबह सुबह झांकी दिखाने लाते हैं।
पश्चिमी इंदौर में ऐसा ही होता आया है बरसो बरस से। उत्सव को बस निपटाने की मानसिकता से दूर रखना। अमले को मानसिक रूप से एक दिन पहले ही तैयार कर देना कि सुबह ही घर लौटना है। खासकर अफ़सरो को। उन्हें बड़ी जल्दी होती है बिस्तर तक पहुँचने की। आदत नही है न रतजगे की। तो बता देना ये इंदौर हैं।
उत्सव प्रेमी शहर। ये ऐसे ही अपने पर्व, परमात्मा, तीज त्यौहार मनाता आया हैं। ये ही तो हमारा इंदौर हैं। हम कितने भी ' स्मार्ट' हो जाये, ' कस्बाई इंदुर' हमारे जेहन से जाता नही। आप भी इसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयास न करना। इसलिए इस पक्का इन्दौरी ख़ुलासा फर्स्ट अखबार ने 36 घण्टे पहले आपसे हाथ जोड़कर ये इल्तिज़ा की है साहेब...!!