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ऋषि चिंतन : सुख शांति का राजमार्ग : औसत भारतीय स्तर का जीवन

आपकी कलम Published by: paliwalwani Updated Sun, 01 Dec 2024 04:58 PM
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ऋषि चिंतन : सुख शांति का राजमार्ग : औसत भारतीय स्तर का जीवन
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एक मनुष्य के पास पर्याप्त साधन, संपत्ति जीवन निर्वाह की वस्तुएँ हैं, फिर भी वह अशांत, परेशान-सा दिखाई देता है। दूसरा उच्च शिक्षा संपन्न अच्छे पद पर प्रतिष्ठित होकर भी भूला-भटका सा दिखाई देता है। व्यापारी, विद्वान्, नेता, पंडित उच्च पद पर आसीन लोग इसी एक प्रश्न के समाधान के लिए परेशान मालूम पड़ते हैं। अधिकांश लोगों की एक ही शिकायत है संघर्ष, अशांति क्लेश,परेशानी । नीचे से लेकर ऊपर तक अधिकांश व्यक्ति इसी प्रश्न के पीछे परेशान है और तरह तरह के प्रश्न करते हैं, फिर भी इसका समाधान नहीं होता ।

वस्तुतः जीवन के इस प्रश्न का समाधान बाहरी सफलताओं या संसार में नहीं है। इसका समाधान मनुष्य के अपने अंदर है। वह है, जीवन व्यवहार में "हृदय" को महत्त्व देना। हमारी बुद्धि बढ़ी है, किंतु हमारा हृदय अभी तक जड़ ही बना हुआ है। बुद्धि के बल पर व्यापार, शिक्षा, पांडित्य विद्वता, उच्च पद एवं जीवन की अन्य सभी तरह की सफलताएँ मिल जाती हैं, किंतु हृदय की व्यापकता विशालता के अभाव में ये सफलताओं के बड़े-बड़े महल, उसी तरह डरावने और अटपटे लगते हैं, जैसे सुनसान अंधेरे में  भवन और किले। हृदय की जीवनी-शक्ति के अभाव में मनुष्य की समस्त समृद्धि, विद्वता, बड़प्पन, उच्च पद के भयावने भूत उसे ही खाने लगते हैं।

उस समय महात्मा बुद्ध को भी इसी स्थिति का सामना करना पड़ा था। वे राजपुत्र थे और सभी कुछ थे, किंतु बुद्ध को ये सब अटपटे लगे। आत्म प्रसाद, शांति, आनंद का समाधान बुद्ध को इस समृद्धि और राजमहल में नहीं मिला। वे इन सब अलंकारों को छोड़कर नीचे उतरे, अपनी इन दीवारों को तोड़ बुद्ध व्यापक बने, जन-मन के साथ एकता प्राप्त की और वे फिर राजमहल के राजकुमार न रहकर असीम के साथ, मानवता के साथ एकाकार हुए, तभी उन्हें जीवन के उस प्रश्न का समाधान मिला।

भगवान राम ने इसी पथ का वरण किया। समृद्ध-सुसंपन्न अयोध्या नगरी को त्याग राम वल्कल वस्त्र धारण कर अनंत पथ के पथिक बने और जंगल में कृत्रिमता से दूर प्रकृति के फैले विशाल आँचल में पशु-पक्षी, वनस्पति, नदी, नालों, पहाड़ तक से अपने हृदय को जोड़ा। शबरी, गिद्ध, केवट के हृदय से हृदय जोड़ने वाले दशरथ सुत राम जन-मानस के राम बन गए।

इसी तरह स्वामी रामकृष्ण, विवेकानंद, दयानंद, रामतीर्थ, लोकमान्य तिलक, मालवीय जी आदि ने अपनी समृद्धि, विद्वत्ता, पांडित्य, उच्च पद आदि से नीचे उतर मानवता के हृदय से अपना हृदय जोड़ा। मानवता के कष्ट-दुःख अपने कष्ट-दुःख समझे, जनता जनार्दन की पीड़ा अपनी पीड़ा समझी और उसके लिए अपने जीवन को लगाया। एक घोर लोकसंग्रही से भी अधिक श्रम किया, कष्ट झेले, परेशानी उठाई पीड़ित, दुःखी क्लांत मानवता के लिए। जनता-जनार्दन के लिए।

समृद्धिः रूप, पांडित्य, विद्वत्ता, पद आदि का अभिमान ही वह चहार दीवारी है जो हमें जीवन के यथार्थ रूप से दूर किए हुए है। अभिमान अहंकार चाहे वह किसी भी गुण, रूप, वस्तु का क्यों न हो, मनुष्य के वास्तविक सुख और आत्म-प्रसाद से उसको दूर रखता है। जिसके दिल और दिमाग इस दंभ की घेराबंदी में जकड़े हुए हैं वह कैसे संतुष्ट रह सकता है ?

जब धनवान अपने धन का, दानवृत्ति का अभिमान छोड़कर दरिद्रता के प्रति अपने हृदय को जोड लेगा, शिक्षाशास्त्री पंडित जब मानवता की पंक्ति में आकर बैठेंगे, उच्च पद संपन्न लोग जब जनता जनार्दन की अर्चना में लगेंगे, तो उनका अहंभाव सहज ही तिरोहित हो जाएगा और उन्हें जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रश्न का समाधान मिल सकेगा। जीवन का सच्चा सुख आत्म-प्रसाद, आत्म-शांति, संतोष हृदय को मुक्त और व्यापक बनाने से ही संभव है। 

दो महान अवलंबन आत्मविश्वास - ईश्वर विश्वास  पृष्ठ-२१

!! पं. श्रीराम  शर्मा आचार्य !!

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