आसान नहीं हैं, 'पांव पांव भैय्या' से 'पार' पा जाना। न 'दिल्ली दरबार' के लिए, न 'भोपाली सरकार' के लिए। किसी की कूबत नहीं कि वह ' टाईगर ' के मूवमेंट को प्रदेश में रोक ले, या 'दिल्ली' में थाम दे। सवा बरस बाद भी ' टाईगर ' न सिर्फ़ ' जिंदा ' हैं, बल्कि उसकी रफ़्तार भी कायम हैं और ' कुनबा ' भी बरकरार हैं।
जिस गति से ' मामा ' दिल्ली में काम कर रहें हैं, वह भी सबकों चौका रहा हैं। अपने मंत्रालय को उन्होंने ' मथकर ' रख दिया हैं। अपनी कार्यशैली व परिश्रमी मिजाज के दम पर वे अपने महकमें में जबरदस्त काम कर रहें हैं। मीडिया में भी बने हुए है और हर मूददे पर मुखर भी हैं। दूसरे केंद्रीय मंत्रियों की तरह वे ' दिल्ली दरबार ' का मुंह नही ताकते रहते। इजाज़त का इंतज़ार नही करते, न नाराज़गी की फ़िक्र करते।
एक तरह से वे दिल्ली की हुकूमत में दूसरे 'नितिन गडकरी' होते जा रहें हैं। इसका मुज़ाहिरा उन्होंने कल काशी में फ़िर दे दिया। अभी 'कमलदल' के बड़े नेता उनके 'इन्दौरी मूवमेंट' के आशय तलाश भी नही पाए थे कि केंद्रीय कृषि मंत्री ने आरएसएस की संविधान के कुछ शब्दों में बदलाव की लाइन को थाम लिया।
वह भी काशी में। यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वाराणसी में। आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले के बोले बोल के दूसरे ही दिन मध्यप्रदेश के मामा भी इस मूददे पर न सिर्फ़ मुखर हुए, बल्कि बदलाव की मांग का समर्थन भी कर दिया। सह सरकार्यवाह के अहम बयान पर प्रतिक्रिया के लिए उन्होंने ' दिल्ली ' का मुंह नही ताककर फ़िर साबित किया- ' मामा से पार इतना आसान नही'।
बात हैं मध्यप्रदेश की हुकूमत पर 18 बरस से ज़्यादा राज करने वाले शिवराज सिंह चौहान की। वे दिल्ली की राजनीति में सक्रिय होने के बावजूद प्रदेश से नाता तोड़ नही रहें। अपने संसदीय क्षेत्र में बेमौसम पदयात्रा कर उन्होंने ये संकेत भी दे दिए- ' ऊधो मोसे मध्यप्रदेश न छोड़ो जाय'। एमपी से रवानगी के पहले भी कई दिनों तक वे एक ही राग अलापते रहें कि दिल्ली नही जाऊंगा।
इस नही जाने को मजबूती देने के लिए उन्होंने राजधानी भोपाल में ही, ' मोहन सरकार' की नाक के नींचे ' मामा का घर ' बना लिया। इस घर को उन्होंने अपना स्थायी पता भी मुकर्रर कर दिया था। दिल्ली ने पुरजोर कोशिशें जरूर कि ' मामा ' के ' वानप्रस्थ आश्रम ' की। देश के दिल से उनको दक्षिण के राज्यों की तरफ़ मोड़ा लेक़िन सफलता हाथ नही लगीं। अब प्रदेश में ' मामा का घर ' भी यथावत हैं और 'मामा-मामी' भी। ' मामी ' का 'राजनीतिक संग' व 'मूवमेंट' में भी कोई अंतर नही आया।
टाईगर अभी जिंदा हैं का शंखनाद क्या कांग्रेस के लिए था? प्रतिपक्ष से तो उनके बेहतरीन रिश्ते थे। लिहाज़ा ये जिंदा होने की हुंकार ' अपनों ' के लिए ही लगी थी, जो ' पांव में चक्कर, मुंह मे शक़्कर ' वाले भिया को राज्य की राजनीति में ' काल-कवलित' करने में जुटे थे या मान रहें थे। हारकर दिल्ली दरबार ने उन्हें दिल्ली ही ले जाना मुनासिब समझा। केंद्र की राजनीति में बतौर केंद्रीय मंत्री उनकी सम्मानजनक ' घट स्थापना ' भी की गई।
लेक़िन वे दिल्ली में भी ' अस्तबल ' के ' घोड़े ' नही बने। वे अपने अलमस्त अंदाज में केंद्र की राजनीति में भी वैसे ही गतिमान हो गए, जैसे मध्यप्रदेश में बतौर मुख्यमंत्री रहा करते थे। उनके काम करने की गति व प्रगति देख महकमें के अफ़सर ही नही, दिल्ली सरकार भी हतप्रभ हैं। वे ऐसे बिरले केंद्रीय मंत्री हैं, जो अपने महकमें की योजनाओं के सँग एक बरस में लगभग पुरा देश नाप चुके हैं। ठीक ' मातृसंस्था ' के मुखिया की तरह उनके प्रवास चल रहें हैं। अभी महज़ शुरुआत है। आने वाले 4 साल में वे अपने मंत्रालय के जरिए एक नई इबारत लिखने में जुटे हुए है। ये उनके अफ़सरों से भी पूछा जा सकता है जो अल्प समय मे ही उनकी कार्यशैली औऱ व्यवहार के मुरीद हो चले है।
मध्यप्रदेश की भाजपाई राजनीति में 'टाइगर का कुनबा' ठीक वैसे ही बरकरार हैं, जैसे प्रदेश के 'बांधवगढ़, कान्हा-किसली से लेकर बगल के राज्य राजस्थान में रणथंभौर अभ्यारण्य तक टाईगर प्रजाति का हैं। कुनबे की बरकरारिता औऱ निष्ठा का प्रकटीकरण एक दिन पहले शिवराज सिंह के इंदौर के दौरे में हुआ भी। उनसे जुड़े ज़िले के तमाम विधायक, वैसे ही उनके लिए गर्मजोशी से जुटे, जैसे कभी वे शिवराज के मुख्यमंत्री रहते हुए मिला करते थे।
बिना ' नए निज़ाम ' की चिंता फ़िक्र किये वे तमाम विधायक 'मामा ' के लिए लामबंद नज़र आये, जो ' मामा के कोटे ' में गिने जाते है। विधायकों ने साबित भी किया कि हम ' तरी ' में साथ थे तो ' मरी ' में कैसे साथ छोड़ दे। मामा पर ताज़ा ' संकट ' लोकायुक्त की ' इक़बालिया ' जांच से आया हैं। अंदेशा 'इक़बाल' से आगे ' सुलेमान ' तक बढ़ने का भी गहरा रहा हैं। लिहाज़ा वक़्त रहते मामा का मूवमेंट तेज़ हो गया। मूवमेंट और उससे जुड़ता कुनबा एक बार फ़िर बता रहा है कि आसान नही हैं "सरकार' द्वारा टाईगर का शिकार।