आपकी कलम

पहलवान हुकमीचंद जी पालीवाल ‘‘हक्कू दा’’ पर लिखा मेरा ये आलेख-सूर्य प्रकाश दीक्षित

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पहलवान हुकमीचंद जी पालीवाल ‘‘हक्कू दा’’ पर लिखा मेरा ये आलेख-सूर्य प्रकाश दीक्षित
पहलवान हुकमीचंद जी पालीवाल ‘‘हक्कू दा’’ पर लिखा मेरा ये आलेख-सूर्य प्रकाश दीक्षित

● हृष्ट पुष्ट काया, विराट व्यक्तित्व के धनी थे-पहलवान हुकमीचंद पालीवाल ’हक्कू दा’

पौराणिक काल से ही कुश्ती का चलन रहा है, जब शस्त्रो का निर्माण नही हुआ तब मल युद्ध हुआ करते थे। मानव हाथों से जोर आजमाइश किया करते थे और हार जीत का निर्णय होता था। धीरे धीरे सभ्यता का विकास हुआ और कुश्ती को खेल के रूप में समाज ने स्वीकार किया। पुराणों में कुश्ती का उल्लेख मल्लक्रीड़ा के रूप में मिलता है। इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इसके प्रति उन दिनों विशेष आकर्षण और आदर था। विशिष्ट उत्सव प्रसंगों पर राजा लोग मल्लयुद्ध का आयोजन किया करते थे और प्रसिद्ध मल्लों को आमंत्रित करते थे। तब से पहलवानी और जोर आजमाईश ओर अखाड़ा संस्कृति के प्रति युवाओं का रूझान बढ़ा और लोगों के मंनोरजन करने के लिये पहलवान अखाड़ो में दंगल करने लगे वैसे तो दुनिया भर में इस खेल को खेला जाता है और भारत में आज भी कुश्ती ग्रामीण से लेकर राष्ट्रीय स्तर का खेल है।

● ‘‘हक्कू दा पहलवान ’’ के नाम से शहर की जनता याद करती

पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तो पहलवानी और कुश्ती दंगल के गढ़ रहे है और बड़े बड़े आयोजन आज भी इन राज्यों में होते है और पहलवान जीत के तमग़े पहनते है। नाथद्वारा कांकरोली भी पहलवानों ओर अखाड़ों की नगरी के रूप में जाना जाता है। मेवाड़ ने भी देश को अच्छे पहलवान दिये है। आज हम बात करते “माटी का लाल“ कालम में कॉकरोली के श्री हुकमी चंद जी पालीवाल की जिन्हें आज भी बड़े आदर के साथ ‘‘हक्कू दा पहलवान“ के नाम से शहर की जनता याद करती है। आपका जन्म 30 मार्च 1947 तिथि रामनवमी के दिन पालीवाल समाज के कॉकरोली नगर के प्रतिष्ठित परिवार में पिता श्री ऊँकारलाल जी पालीवाल ओर माताजी श्रीमती धापू बाई पालीवाल के पुत्र रत्न के रूप में हुआ। खानदानी, रूतबेदार संपन्न व्यवसायी श्री ऊँकारलाल जी पालीवाल (दवाई वाले) के नाम से प्रसिद्ध थे। उस जमाने में नगर में एक मात्र अंग्रेजी दवाई की दुकान आपकी ही थी। श्री ऊँकारलाल जी पालीवाल के चार पुत्रों में श्री हुकमी चंद जी तीसरे पुत्र थे। युवा अवस्था से आप बलशाली ओर प्रतिभावान थे। 20 वर्ष की उम्र से ही आप कुश्ती ओर पहलवानी करने लग गए थे। जवानी में 110-20/ किलो ग्राम वेट की कुश्ती में आप कॉकरोली का प्रतिनिधित्व स्थानीय, जिला स्तरीय और राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में करते थे। आपके वेट की कुश्ती के पहलवान मेवाड़ क्षेत्र में बहुत कम थे। आपने सन् 1968-1969 में राजस्थान सरकार द्वारा आयोजित राजस्थान केसरी कुश्ती निर्भय सिंह (अजमेर) से 110 वेट की कुश्ती लड़ी ओर राजस्थान में द्वितीय स्थान हासिल किया। आपने भीलवाड़ा के मशहूर चाँद पहलवान से भी कुश्ती लड़ी, नाथद्वारा के बड़ा तुलसी पहलवान को भी परास्त किया। तो उदयपुर के पहलवान माणिक जाट से भी जीत हासिल की, मोबागढ़ अखाड़ा नाथद्वारा के रसिक पहलवान सन् 1964-1965 में कुश्ती में एक मिनट में चीत कर दिया ।

● हक्कू दा के नाम से कोई कुश्ती लड़ने अखाड़े में नही उतरा

उनके मित्र मुरलीधर जी ने सूर्य प्रकाश दिक्षीत को चर्चा करते हुए बताया कि उस जमाने में हक्कू दा से कुश्ती लड़ने से पहले पहलवान को मुझ से जोर आजमाईश करनी पड़ती मुझे हराने के बाद पहलवान उनसे कुश्ती लड़ सकता था, मैं एक तरह से उनकी ढ़ाल था। उन्होनें बताया की एक बार हम चित्तोड़गढ़ के सोनी का अखाड़ा में कुश्ती लड़ने गए तो हमारे नाम से कोई कुश्ती लड़ने अखाड़े में नही उतरा, अजगर पँचमी को हर वर्ष कॉकरोली मंदिर के बड़ा बाग अखाड़े पर दंगल होता था, वहाँ नाथद्वारा , कांकरोली के सभी अखाड़ो के पहलवान भाग लेते आप नया अखाड़ा की तरफ से भाग लेते थे। मदन छिपा, सुंदर सेन, आदि स्थानीय पहलवान कुश्ती लड़ते थे। आप स्वभाव से भोले भाले सरल हँसमुख मस्त मौला थे। ज़िंदगी को फकीराना अंदाज में जीते थे। हृष्ट पुष्ट काया के पहलवान हो कर भी अंदर से कोमल हृदय के विराट व्यक्तित्व थे।

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● दोस्तों पर जान छिड़कने वाले दा

उदार स्वभाव खुले दिल से दोस्तो पर जान छिड़कने वाले वैसे तो ये सभी से आत्मीयता रखते मगर इनके अभिन्न मित्रों में श्री हरिवल्लभ जी गुर्जर, श्री मुरलीधर जी जाट ,राधेश्याम जी टेलर श्री रामचंद्र जी कुमावत, श्री छन्नू सिंह जी चौधरी, श्री मांगीलाल जी तलेसरा सभी नामी पहलवान और नया अखाड़ा के सभी साथी पहलवान रहे और कुछ स्कूली मित्र भी रहे। श्री माणिक्यलाल जी गुर्जर (उस्ताद) इनको कुश्ती के गुर सीखाने वाले गुरुदेव थे! वैसे तो पहलवानो को सात्विक भोजन करने का शौक होता है और कसरत करने के बाद शरीर में पौष्टिक आहार की जरूरत भी होती है, हक्कू दा घर का बना भोजन ही करते थे, श्री द्वारिकाधीश मंदिर  कांकरोली के प्रसाद के अलावा श्री हक्कू दा पहलवान नियमित रूप सक दूध पीने और पान खाने के शौकीन थे! कांकरोली में रामा बा के प्रसिद्ध (डाकला) उनकी पसंदीदा नमकीन थी। 

फोटोग्राफ : पहलवान हुकमीचंद जी पालीवाल अपने मित्र मुरलीधर जी जाट के संग

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● दोस्तों में में प्रतिस्पर्धा होती तो हुक्कू दा शर्त जीत जाते

व्यसायिक कार्यस्थल(दुकान) पर दिन भर की मेहनत के बाद रोजाना दो रूपये दुकान से अपने खर्चे के ले जाते दोस्तों के साथ शाम को नियमित बाजार में दुध पीते पिलाते थे। कभी कभी शर्तिया खाने पीने की दोस्तों में मजाक मजाक में प्रतिस्पर्धा होती तो हुक्कू दा शर्त जीत जाते। आप कुशाग्र बुद्धि के भी थे। हायर सेकेण्ड्री तक पढ़ाई करने के बाद खुद की दुकान जो सर्राफ़ा बाजार में थी। वहाँ फ्रेण्ड्स जनरल स्टोर नाम से चलाते थे। उस जमाने में जनरल स्टोर की वो मशहूर शॉप थी। आपके व्यवहार और व्यक्तित्व के कारण जे.के. टायर फैक्ट्री के ऑफिसर और कारिन्दे आपके नियमित ग्राहक थे। हुकमी चंद जी पालीवाल का विवाह इंदौर निवासी सुश्री दुर्गा देवी से हुआ। ये बहुत सुशील और सीधी महिला थी इनका स्वभाव हुकमी चंद जी की तरह ही था यूँ कहे की पति पत्नी दोनों सीधेपन की प्रतिमूर्ति थे। श्री जय सिंह जी राणावत ने चर्चा करते हुए बताया कि श्री हक्कू दा ईमली वाले बालाजी के परम भक्त थे और समाज सेवी भी थे।

● कपि राज मित्र मंडल के सामाजिक कार्य

आपने सन् 1975-1976 में कपि राज मित्र मंडल का गठन किया और बचत समिति बनाई और मित्रों और परिचितो को उसमें सदस्य बनाया और बाजार के कुछ व्यापारियों को सदस्य बनाया और बालाजी के मंदिर का जिर्णोद्धार करवाया। सेठ हर जीवन दास द्वारा बनवाये मंदिर के गेट जो पुराने हो चुके थे उन्हें बदलवाये और उसकी जगह नये गेट बनवाये, बालाजी के चाँदी का मुकूट बनवाया। नये वाद्य यंत्र मंगवाए और हर मंगलवार को भजन कीर्तन का आयोजन करवाना शुरु किया। प्रति मंगलवार को नगरजन के सामने बालाजी मंदिर के बंद भेंट गोलक की बोली लगाई जाती जो ज्यादा रूपये देता उसे चिल्लर भेंट में दे दी जाती जो 300/रू. और 350/रू की होती थी मगर श्रृद्धाभाव से भक्त जन उसे 3000/रू 4000/ रू या अपनी श्रृद्धा अनुसार बोली छुड़वाकर दान स्वरूप मदद करते थे। चंदों के पैसो से मंदिर को सुन्दर और भव्य बनवाया गया। बंद गोलक के अंतिम बोली श्री गौतम सनाढ्य ने लगाई तब गोलक से 350/ रू. निकले थे, श्री गौतम ने 9500/रू.(नौ हजार पाँच सौ रूपये ) देकर बोली छुड़वाई थी। ये परम्परा बाद में बंद कर दी। दान देने, लेने की यह परम्परा अदभुत और अनूठी थी, जिसे श्री हुकमी चंद जी पालीवाल ने शुरू किया। बालाजी महाराज के मंदिर की जिम्मेदारी श्री हुकमी चंद जी ने अपने ऊपर तन, मन, धन, से लेकर सारी व्यवस्था देखते थे। उन्हें कपिराज मित्र मंडल का संरक्षक बनाया गया। श्री महावीर प्रसाद जी भंडारी, श्री रामप्रसाद जी सोनी, श्री महावीर जी बाबू जी (सेल टैक्स वाले), श्री जय सिंह जी राणावत, श्री वी. एस. चौहान, आदि कार्य समिति के स्थायी और सहयोगी सदस्य थे। प्रति मंगलवार को बालाजी के प्रसाद बनता और नगरजन को वितरण किया जाता।

● हर वर्ष हनुमान जंयती पर विशाल सवारी

हाथी, घोड़े, बैण्ड, बाजों और लवाजमे के साथ निकलती थी। हक्कू दा की अगुवाई में इस समिति ने लगातार कई वर्षो तक आयेजन किया। हक्कू दा के असमय दुनिया से चले जाने से समिति दो वर्ष और चली और योग्य व्यक्तियों के हाथों जिम्मेदारी ना संभाल पाने के कारण इसे बाद में भंग कर दिया! लोक गीतकार और साहित्यकार श्री माँगीलाल जी अफँगी को हक्कू दा बड़े भाई सामान देते थे और उनसे राय मशवरा लिया करते थे। कपिराज मित्र मंडल का नामकरण भी श्री अफंगी ने उन्हें सुजाया जो हक्कू दा को बहुत पंसद आया। हक्कू दा का असमय जाना अफंगी जी को भी सदमा पहुंचा गया। हक्कू दा की !! स्मृति में भजन !!
जब भजन संध्या रखी तो श्री माँगीलाल जी अफँगी ने हक्कू दा की याद में एक भजन लिखा और गाया तो वहाँ बैठे मित्र मंडली और श्रोताओं के नयनो से आँसुओं के झरने फूट पड़े...उस भजन के बोल ये है...

!●!...भजन...!●!

साथी हुक्मीचन्द सभी का अभिनन्दन !
कपिराज मंडल के प्राण, उन्हें शत शत वंदन !!
सतसंगी बन साथ निभाय बनकर परम पुजारी !
हिलमिल कर रहते थे सबसे सबसे समझ के दुनियादारी !!
इच्छाधारी करते सारी बाते प्यारी -प्यारी !
बीमारी ले उड़ी छोड़ कर के क्रन्दन !!
कपिराज मंडल के प्राण...
डटकर के दंगल में पहलवान की पदवी पाई !
इस छोटी सी उम्र में भी क्या क्या रचना रचाई !!
करी भलाई प्रीत निभाई क्या क्या करे बढ़ाई !!
बाँध सका ना तुमको कोई भव बँधन !!
कपिराज मंडल के प्राण...
इमली वाले हनुमत के मंदिर की पलटी काया !
बुर्जनुमा मंदिर की मरम्मत करके काँच जुड़वाया !!
काला पत्थर और संगमरमर लगवा खूब सजाया !
चाँदी का सरताज़ ओ गोटा कर पूजन !!
कपिराज मंडल के प्राण...
शर्मा और पंवार अफंगी सतसंगी की धड़कन !
छोड़ चले इस लोक, लोक इस छोड़ चले हो उलझन !!
कीर्तन भजन में सभा सदन में व्यापक एक ही उलझन !
सिया राम मय सब जग जानी कर दर्शन !!
साथी हुक्मीचंद सभी का अभिनन्दन !
कपिराज मंडल के प्राण उन्हें शत शत वंदन !!

● भरा पूरा परिवार और कई शिष्यो को छोड़ संसार सागर से अलविदा कह गये

अफंगी साहब आज हमारे बीच नही रहे, उनके सुपुत्र दाऊलाल पालीवाल ने ये भजन उपलब्ध करवाया। आज भी ईमली वाले बालाजी के मंदिर में आपकी तस्वीर एक याद बन कर लगी हुई है। उसी परम्परा का निर्वाह करते हुए युवा पीढ़ी, नौजवान और उस बाजार के व्यापारियों ने ईमली वाले बालाजी के मंदिर को वर्तमान में और भव्य बना दिया है और प्रति मंगलवार भजन संध्या और हनुमान जंयती पर भव्य आयोजन किये जा रहे है। जिसमें छप्पन भोग का प्रसाद बनवाकर दर्शनार्थियों को वितरित किया जाता है। कहते है अच्छे इंसान की जरूरत ईश्वर के यहाँ भी होती है। वैसे जन्म मृत्यु पर किसी का बस भी नही चलता है, मृत्युलोक में आने और जाने का समय विधाता के हाथों लिखा जाता है, कितना जीये ये महत्वपूर्ण नही है, आपने ज़िंदगी को कैसे जीया यह महत्वपूर्ण बात है। मगर अपने इंसान को खोने का गम सभी को होता है और जब हुकमीचंद जी पालीवाल (हक्कूदा ) का निधन अकस्मात हृदयघात से हो गया तो उनकी मृत्यु का समाचार नगर में आग की तरह फैला तो नगरवासियों की आँखे नम हो गई। 17 जुलाई 1987 को मात्र 41 वर्ष की कम आयु में अपनी माता धापू बाई, पत्नी दुर्गा देवी, पुत्र भुपेन्द्र (कालू) पुत्री अनिता और दो अग्रज भ्राता श्री उमाशंकर जी, श्री दीनदयाल जी एवं अनुज राजकुमार जी दो बहने प्रेमदेवी, फूलादेवी भरा पूरा परिवार एवं उस्ताद गुरुजनो मित्रो, और कई शिष्यो को छोड़ संसार सागर से अलविदा कह गये। मगर नगरवासियों के दिलों में आज भी हक्कू दा का व्यक्तित्व स्मृति बन कर जहन के पटल पर अंकित है। “माटी का लाल“ कालम में आपके जीवन की उपलब्धियों को लिख कर अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हुए, आप की बेमिसाल शख्सियत को कोटि कोटि नमन करता हूँ!

नोट :- इस संबंध में लेख जयवर्द्धन पत्रिका जून माह के अंक माटी का लाल कालम में प्रकाशित हो चुका है। लेख प्रकाशित करने पर संपादक महोदय का आभार...।

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● लेखक :- सूर्य प्रकाश दीक्षित...✍️
काव्य गोष्ठी मंच-कॉकरोली जिला राजसमंद, राजस्थान
मोबाइल न. 9414621730

● पालीवाल वाणी ब्यूरो
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Sunil Paliwal-Indore M.P.
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